सोच की अंगीठी में जलता व्याकुल मन.........!!!

मिट्टी के मनुष्य की
तलाश कब खत्म हुई है।
गहरी निंद्रा में भी
भटक रहा है।
ताम्बूल चबाते
सोच गटक रहा है।
सड़क निहार 
डगमगा रहा है।
स्वप्नों में भी 
शगुन-अपशगुन
का दंश झेल रहा है।
जो रोग न हुआ ज़ाहिर
उसे खुली आँखों से
मौन हो सोच रहा है।
बेवजह मुस्कुरा
ख़मोशी ओढ़ रहा है!!

फुट-फुट कर रोने की वजहें बहुत है,
ग़मों के गुलिस्तां में।
घायल मन उमड़ता है, बरसता नहीं।
इक अजब दर्द है अब कागज़ पर उतरता नहीं।
आइना बहुत साफ किया
पर अपना अक्स दिखता नहीं।
लाख कोशिशें की मुस्कुराने की
पर अब होंठो पर मुस्कान सजती नहीं!!

दुखी पाठशाला में
सब नैनों में आये सैलाब में बह रहे है।
नोका में हुए छेद से गंगा में डूब रहे है।
आंखे मूंदकर
देवताओं से बचा लेने की गुहार कर रहे है।
व्याकुल मन को
अंगीठी में जला
स्वर्ण कर रहे है!!











टिप्पणियाँ

  1. बहुत ख़ूब ... जुदा अन्दाज़ की रचना ...

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  2. आंखे मूंदकर
    देवताओं से बचा लेने की गुहार कर रहे है।
    व्याकुल मन को
    अंगीठी में जला
    स्वर्ण कर रहे है!!
    बहुत सुन्दर, लाजवाब भावाभिव्यक्ति.

    जवाब देंहटाएं
  3. मानव मन की विसंगतियों पर बहुत धार दार अध्ययन देती सुंदर रचना
    वाह!

    जवाब देंहटाएं
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