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अक्तूबर, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक ख़ामोश फ़साना है, जो अब संवरता ही नहीं.....!!!

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एक ख़ामोश फ़साना है, अब संवरता ही नहीं। दिल का दर्द कम होता ही नहीं। लहू उतरता है, आँखों में होंठो की दबी हँसी में, दर्द तड़पता है। तुमने बंजर बना रेगिस्तान में छोड़ दिया एक बहती नदियां को। एक आशा को चाँदनी में जला, धुप में खड़ा कर दिया। एक विश्वास को प्रश्नों के बोझ तले दबा दिया। एक किश्ति को बेवज़ह लहरों में डूबा दिया। खुद का स्वार्थ सिद्ध कर एक मुस्कान को छीन लिया तुमनें। दुआ नहीं निकलती अब दिल से बद्दुआ खुद को देती हूँ। तेरी उम्र हजार साल हो जाये मुझे मौत आ जाये!!

मिथ्या आरोप

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जख़्मी दिल का सुराग़ अब भर नहीं रहा। वो बारीक़ किस्से शूल से चुभ रहे है। अपलक देखे सपने स्वर्ग सिधार गये। बर्बाद आदमी के मातम पर जग हँस रहा है। कुटिल मुस्कान में साफ़ शब्दो का प्रयोग कर दोहरे अर्थो वाले चुभती बातें कह रहा है। रद्दी के टोकरे में नजर गड़ाए बैठा आदमी मिथ्या आरोप से छलनी हो रहा है। दुखती रग का लहू श्वेत हो रहा है। अपनी कुटिया में बैठा जिन्दगी को कोस रहा है। खजूर की चटाई को नोच रहा है। आंखे छलछला आई है, प्रत्यच्छ अपना नसीब देख। कलेजा मुंह को आ रहा है। ऐ आदमी ये तेरा क्या हाल हो रहा है। क्या गुनाह किया तूने जो ये जग हँस रहा है!!

सोच की अंगीठी में जलता व्याकुल मन.........!!!

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मिट्टी के मनुष्य की तलाश कब खत्म हुई है। गहरी निंद्रा में भी भटक रहा है। ताम्बूल चबाते सोच गटक रहा है। सड़क निहार  डगमगा रहा है। स्वप्नों में भी  शगुन-अपशगुन का दंश झेल रहा है। जो रोग न हुआ ज़ाहिर उसे खुली आँखों से मौन हो सोच रहा है। बेवजह मुस्कुरा ख़मोशी ओढ़ रहा है!! फुट-फुट कर रोने की वजहें बहुत है, ग़मों के गुलिस्तां में। घायल मन उमड़ता है, बरसता नहीं। इक अजब दर्द है अब कागज़ पर उतरता नहीं। आइना बहुत साफ किया पर अपना अक्स दिखता नहीं। लाख कोशिशें की मुस्कुराने की पर अब होंठो पर मुस्कान सजती नहीं!! दुखी पाठशाला में सब नैनों में आये सैलाब में बह रहे है। नोका में हुए छेद से गंगा में डूब रहे है। आंखे मूंदकर देवताओं से बचा लेने की गुहार कर रहे है। व्याकुल मन को अंगीठी में जला स्वर्ण कर रहे है!!

काश एक पीर मेरी भी तुम समझ पाते.........!!!

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एक पीर मेरी भी काश तुम समझ पाते। मेरे स्वर का कंपन महसूस कर पाते। आँखों से गिरती पीड़ा को अपने कांधो का सहारा दे पाते। मेरे बिखरे केशों को अपनी हथेली से थोड़ा संवार देते। तो मैं काँटों बीच भी थोड़ा मुस्कुरा लेती। मुठ्ठी भर खुशियों को अपने अधरों में छिपा लेती। भाव तुम्हारे चहरे के पलकों पर सजा लेती। सुगंधित ब्यार अहसास की बांध लेती हृदय के डोर से। गाती ऋतुओं की कजरी। फागुन सा फूलों के रस में नहा लेती। नीरस पतझड़ में भी हरसिंगार के फूलों सा झड़ती। बगिया महकाती। नव वसंत ले आती। मन हर्षाती। इंद्रधनुषी छठा बन इठलाती। मृदुल श्रृंगार कर नियति के काँटों में भी, गुलाब बन रह लेती। शीत की ओस में भी गुनगुनी धूप का, अहसास कर लेती। काश एक पीर मेरी भी तुम समझते। तो मैं अश्क़ो के संमुन्दर में भी कुछ ख़्वाब बटोर, जीवन जी लेती। जीवन ली लेती!!!  

क्या कभी खुद से दोस्ती की है??

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दोस्ती का मतलब निःस्वार्थ प्रेम भरा खूबसूरत रिश्ता। इस रिश्तें में बंधकर आप अपने दोस्त की हर मुश्किल आसान करते है। लेकिन खुद की समस्याओं से हैरान परेशान हो जाते है। क्या कभी सोचा है आपने ऐसा क्यूँ होता है। क्योंकि आप खुद के दोस्त नहीं बन पाए है। 'सेल्फ़ फ़्रेंडशिप' थोड़ा अजीब है न सुनने में। पर सच जिस दिन आप खुद से दोस्ती का मतलब समझ जाते है, सच्चे अर्थों में जीने लगते है। "ऑस्कर वाइल्ड ने कहा था कि-विजेता अपनी कमजोरियों को जानते हुए भी अपना ध्यान अपनी ताकत पर लगाते है, जबकि हारने वाले अपनी ताकत को जानते हुए भी अपना ध्यान अपनी कमज़ोरियों पर केंद्रित करते है। यही है, हमारी हार की वजह। दरअसल दुश्मन को जानना एक छोटी लड़ाई जीतना भर है। जबकि खुद को जानना एक युद्ध जीतने के बराबर है। अमूमन लोग अपनी रणनीति दूसरों के हिसाब से बनाते है, लेकिन विजेता वही बनते है, जो रणनीति अपने हिसाब से बनाते है। बगैर किसी की परवाह किये, चलो खुद को जानने की एक पहल करते है------ .....जिन्दगी की टाइम लाइन बनाओ सोशल मीडिया पर तो टाइम लाइन बनाई होगी न आपने बस वैसे ही जिन्दगी की टाइमलाइ

जिन्दगी और मुझमें अजब इक़रार है.....।।

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हौले-हौले लिखती हूँ धीमे-धीमे गाती हूँ जिन्दगी का हर दर्द लफ्ज़ो में बयां करती हूँ। जो दर्द न होता है जाहिर उसे रात में चुपके से तकिये के हवाले करती हूँ। जिन्दगी और मुझमें अजब इक़रार है, काली रात में जाऱ-जाऱ रोकर सुबह हँसने का इकरार है। साजिशों में जल कर राख हो गयी हूँ। फिर भी खुद पर एतबार है। ग़मज़दा जिन्दगी को झूठी मुस्कान के सहारे रास्ता पार करा रही हूँ। मंजिल मिले न मिले आशा की किरण से खुद को सवांर रही हूँ। हौले-हौले आगे बढ़ धीमे-धीमे गा रही हूँ। अपनी जिन्दगी खुद अलाप रही हूँ!!              नीलम अग्रवाल

भीगी पलकें..........!!!!!

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अब कुछ न बोलेंगे सबसे दूर चले जायेंगे बहुत घुटन हो रही है, न जाने ये क्यूँ हो रही है। पलकें बार-बार भीग रही है, लब निशब्द हो रहे है। सब कुछ पास है, फिर भी लग रहा है कुछ पास नहीं बुखार ने आगोश में भर लिया है। दर्द ने दिल जख़्मी कर दिया है। अशांत वातावण ने हर तरफ आंधी-तूफान ला दिया है। निर्जन वन में जैसे कूड़ा-करकट भर गया है। प्यार बाँटने आये थे, दर्द बटोर कर जा रहे है। गर्म मौसम में बर्फ से जम रहे है। सब कुछ सम्हालने में खुद खाई में गिर गए है। कागज़ की कश्ती से नदियां पार कर रहे थे, इसलिए बीच-धारा डूब रहे है। कुछ न समझ पाए सबकी खुशी में खुशी ढूंढ़ रहे थे, अब पता चला हम तो खुद अपनी कब्र खोद रहे थे। रेलगाड़ी के डिब्बे सी जिन्दगी, बस यु ही भाग रही है स्टेशन का पता नही, लगता है किसी पुल से गहरी खाई में गिरेगी। दुःख के पलड़े में खुशी तोल रहे थे, क्या पता था, दुःख का पलड़ा भारी निकलेगा। मुझे रुला कर कर खुद चैन से सो जायेगा। अनुभव की गहराई में उत्तर ढूंढ़ रहे थे, प्रश्नों की बौछार ने भिगों कर धुप में खड़ा कर दिया। अब सर्दी-जुकाम की आड़ में मौसमी बीमारी ने घेर लिया। जिस्

उदासी ख़ास तौर पर मुझसे मिलने आई है........!!!

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ऐसा लगता है। उदासी ख़ास तौर पर मुझसे मिलने आई है। पीड़ित मन में  फुट डाल ईक्षा शक्ति हरने आई है। निर्लज्ज भाषा से अफ़सोस जताने आई है। अंतमंन के टुकड़े-टुकड़े कर दोहरी नीति चलने आई है। समाज का डर दिखा आत्मविश्वास नोचने आई है। छद्म वेष-भूषा में विचार रुग्ण करने आई है। संस्कारो को कुसंस्कारो में परिवर्तित करने आई है। मौकापरस्त न बनने का ताना मारने आई है। चुपचाप ललकारने आई है। चहरे पर नफ़रत का मुखोटा ओढ़ाने आई है। होंठो पर साजिश चिपका आँखों में खारा पानी भरने आई है। मुझे दुनियां को दुनियां की तरह न पहचान पाने का ताना मार आज की दुनियां का  दोगला सच सिखाने आई है!!!