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स्त्री

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  ये कैसा दर्द है जो कभी मिटता ही नहीं, कभी रूह तो कभी जिस्म में पलता रहता है। हर दर्द में आंखे गीली गला रुंध जाता है। जैसे धूप में आई पसीने की बूंदे। तन-मन सब खारा करती है। दर्द का रंग भी कितना जिद्दी होता है कितना भी समझाओ खुद को पर टप-टप आखों से गिरता ही रहता है। दर्द हमेशा झुंड में आ घेर लेता है। जैसे इस जन्म के साथ-साथ पिछले जन्म का हिसाब भी चुकता कर रहा है कोई। दर्द थकान के हवाले कर  उम्मीद को खाई में धकेल धूप में खड़ा कर परीक्षा लेता है। दर्द कैसा भी हो आंखों के रास्ते बाहर आ फैल ही जाता है। आत्मा की चीत्कार का स्वर गूंज ही जाता है। मन मे अमावश तन में रोग लग ही जाता है। स्लेटी आसमां को ताकते जमीं को निहारते फिसलते वक्त को पकड़ते सुबह से निकल शाम में पहुंच ही जाते है। रात में आंखों को  रोने के नियम-कायदे सीखा जीवन में लगी आग बुझा ही लेते है। दर्द खुशियों की कब्रगाह उम्मीदों की उलझी गुत्थी उत्साह की दलीलें मायूसी के पसीने हर बात का रोना। आश्चर्य का मख़ौल जैसे शांत झील में कोई पत्थर मार किसी को चोट पहुंचा गहरी नींद से उठा देता है। दहाड़े मार-मार रोने के लिए। नसीब को कोसने के लिए। दर्द

हृदय की ऊर्जा

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  प्रेम हर हृदय की मांग है.....! प्रेम में एक शक्ति एक ऊर्जा होती है। प्रेम खुशी का एक नायाब तोहफ़ा है। प्रेम में हर रंग मुस्कुराता हर अंग सक्रिय हो जाता है। प्रेम...... सुनों ~~ तुम मेरे मन को बहुत भाते हो, मेरे निरीह मन की आस, विश्वस हो तुम! मेरी पलकों पर लगे काजल में तुम समाये हो जैसे चांदनी रात में रात समायी है। तुम मेरे मन का अनिवार्य हिस्सा हो, मेरी हर मुद्रा में तुम विचरण करते हो। जैसे आकाश में सूर्य विचरण करता है हर दिशा में। तुम मेरा केंद्रबिंदु हो जिसके इर्द- गिर्द मैं मंडराती रहती हूं किसी ग्रह-उपग्रह की भाती सदैव। तुम मेरी शुद्धता हो, मेरा आत्मबल, मेरा अभिमान हो, मेरे जीवन का  सबसे उज्वल समय हो। तुम हीरा हो मैं स्वर्ण स्वर्ण की क़ीमत हीरे से कई गुणा बढ़ जाती है। बस ऐसे ही  तुम संग मेरी क़ीमत बढ़ गई है।

पनिहारिन (बारिश)

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  केश कुंतल काले-काले वर्षा में भीगे नैन मतवारे। स्यामल-स्यामल देह नैन कजरारे होंठो पर लाल पलाश दहके नथनी में हीरा दमके गले में काले मोती चमके बदन पर सितारों जड़ी चुनरी बहके हाथों में हरी चूड़ी खनके पांवों में पायल बजे बर्षा के घुंघरू बांधे छम-छम नाचे ये बावली पनिहारिन गगरी भर छलके कच्ची सड़क पर पक्के मन की, पक्के रंग की ये पनिहारिन कच्ची दूब पर घाट किनारे सखियों संग धूम मचाये, रास रचाये वर्षा संग बूंद बन नदी बीच नदी बन बहे पथरीली राहों पर झील बन झरने सी बहे ये पनिहारिन!

मैं और मेरी कविताएँ

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 पता नहीं कविताओं में मैं बस्ती हूँ, या कविताएँ मुझमें बस्ती है। जो भी हो, पर है ये बिल्कुल  अग्नि से निकलती लपटों की तरह, मेघदूतों की तरह, और कभी-कभी बंजर तपती जमीं की तरह। कविताओं की आँखो में अक्सर नमी भरी रहती है। घुटन, और सीलन भरी रहती है। ये क्यों भरी रहती है पता नहीं। लेकिन धुंए से उसकी आँखें लाल और गले में खराश रहती है। स्याह आकाश, धरा पर टिमटिमाटी बत्तियां काले बादलों बीच झांकता चाँद बारीक बूंदे, हवा से टकरा जब पहुंची मेरे आंगन अनमनी नींद ठंडी हवा के झोंके से खुल गई। कुछ सुकून कुछ तड़प के साथ मैं खिड़की के पास आ बैठ गई।  अपनी कविताओं में तुम संग तुममें और मुझमें एक ही अंतर है तुम खुले आकाश मैं धरा पर सिमटी रेत सी उड़ती रहती हूँ तुम्हारे ही विस्तृत क्षेत्र में पवन के झोंके संग धूल भरी आंधी सी।

विहंगम दृश्य

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  मेरा जिस्म पानी पर तैरता एक गांव सा है...। जिसमें दर्द के चश्में बहते है...। बिन मौसम नदी में तूफान आता रहता है...। रिश्तों को सींचते-सींचते... सब खाली-खाली सा हो गया है...। फिर भी खारा जलस्तर... बढ़ता ही जा रहा है...। प्राकृतिक सौंदर्य तो अब भी कायम है... पर जिन्दगी की ऊष्मा कहीं पीछे छूट गयी है...। खुशियों का आश्चर्य मिश्रित अहसास होता रहता है...। नील गगन में उड़ा सीधा पाताल में फेंक दी जाती हूँ...। सारी उपलब्धियां गिना... पाई-पाई की मोहताज कर दी जाती हूँ...। मगरमच्छो के बीच कमल सा खिल शांत रहने का... विहंगम दृश्य समझ तारीफ की पात्र बना दी जाती हूँ...। छल-कपट से घिरी तेज लहरों में... मुरझाई पवन के झोंके सी तैरती रहती हूँ...। भारी वर्षा के बढ़ते जलस्तर में... शांत झील बन डूबते सूरज की लालिमा... से चमकती रहती हूँ...। तेज धारा में बह चटटानों से टकरा... शंख-सीपियों सी बिखर... रेतीले तट की शोभा बढ़ाती रहती हूँ...। वजूद की तलाश में... रोज जीती जा रही हूँ... मुस्कुराती जा रही हूँ...!!!

अथाह प्रेम.......💟

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  प्रेम विस्तार देता है, सकुंचित नही करता। इसलिए मैं हर दिशा में फैल रही हूँ, प्रकाश बन, तुम संग....!! सुनो.... तुम कनेर के फूलों से हो और मैं तुम्हारा पीला रंग मैं तुम संग माला में गुंथी रहना चाहती हूँ। देवों के चरणों मे शीश नवाना चाहती हूँ, गंगा जल बन कर। तुम मेरा अंतः मन हो जहाँ मैं मेरी रुचि को निखारना चाहती हूँ, तुम्हारे ज्ञान की आभा में। मैं कागज़ की गुड़िया तुम आजाद पक्षी ले चलों मुझें अपनी आजाद दुनियां में जहाँ मैं सोनचिरैया बन गगन में उड़ सकूं  तुम संग। कांपती सी मेरी मनःस्थिति कांपता सा मेरा शरीर तुम्हारे मजबूत काँधों के सहारे ही तो हर डर का सामना कर रहा है। रहस्यमय जीवन का। कांच सी आंखे पारदर्शी जिस्म मेरा धैर्य न था जिसका गहना। तुम संग वो भी धैर्यवान होना सीख रहा है, इस रहस्यमय जीवन में। तुम ठोस इमारत मैं नींव का पत्थर चलो इस दुनियां को अपना परिचय देते है। अपनी अनन्त गहराई का अपनी जिज्ञासा का।

सावन

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  सावन का गोत्र क्या है ? सावन की जाती क्या है ? सावन का पद क्या है ? सावन का मनुहार इतना हरा क्यों गया ? सावन का दुलार इतना गीला क्यों है ? सावन का गोत्र "काली बदली" सावन की जाती "हरी" सावन का पद "प्रेम" सावन की मनुहार "रुनझुन बरसात" सावन का दुलार "गीला हर द्वार" सावन का लिहाफ़ "मधुर हर तान" आंगन भीगा, तुलसी भीगी मोगरे की गीली खुशबू गुलाब संग उड़ी। थाल भर मालपुए की महक नथुनों में भरी। धीरज न रहा कांसे के थाल में सब गुड़ की लापसी से सज गए। सब श्रावणी घुंघरू में बंध एक हो गए !!

ये कौन सा ज्वालामुखी फूट पड़ा...!!

 इक आग मेरे सीने में टहल रही है... इक लपट मेरे सीने से निकल रही है... कुछ तो हुआ है... यूं ही ये आग मेरे सीने में नहीं जल रही है...। मुहँ से लावा निकल रहा है... कोई चुभन बे बर्दास्त हो गई है...। कुछ तो हुआ है... जो ये आग ज्वालामुखी सी फूट पड़ी है...। चोटी तक आग की लपटें उठ रही है... गगन तक अदृश्य हो गया है... बस काला धुंआ ही काला धुंआ हर तरफ नज़र आ रहा है...। बादल तक आश्चर्यचकित है... ये कौन सा ज्वालामुखी फूट पड़ा है...!!

कठपुतली

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तालिका के शून्य स्थान के अतिरिक्त मेरा कोई स्थान नहीं अपने ही घरौंदे में। लेशमात्र भी हैरानी नहीं, अक्सर यही स्थान होता है औरतों का अपने ही घरौंदे में। देव-प्रतिमा से लेकर देव-कलश तक में सराही जाती है, पर खुद के फैसले तक नहीं ले पाती अपने ही घरौंदे में। क्यों संदेह के घेरे में उसकी आंखे हमेशा डबडबाई रहती है? बचपन से लेकर बुढ़ापे तक आंखे गड़ाई रहती है कब उसका जीवन सुधरेगा? वंश वृद्धि की डोर थामे क्यों अपनी ही डोर नहीं थाम पाती वो? प्रफुल्लित करती सबको खुद हँसती भी है डर-डर कर इस जीवन में वो क्यों? क्यों गर्म संदूक में चिर निंद्रा चाहती है वो, मुट्ठी भर खुशियों की चाहत में तड़पती है वो? क्यों कर्तव्य निभाते-निभाते कठपुतली बन चुकी? अब शेष जीवन आजाद होना चाहती है वो। क्यों जरूरत की जिंदगी में जरूरी नहीं रही वो? नम्रता में जीवन गवां चुकी, क्रोध में जीवन जला बैठी वो।

अनकहा दर्द

अनकहा दर्द मेरा.. सुख-चैन छीन.. मुख पर उदासी.. नैनो में पानी भर देता है..। रंग-बिरंगे ख़्वाब मेरे.. समय की पगडंडी में भटक कर.. न जाने कहाँ चले गए..। अब तो बस.. खोखले रिश्तों की जमा-पूंजी बची है..। जहाँ सिर्फ समय को जी रही हूँ..। लोग क्या कहेंगे?? इस डर के साथ.. खुद को मार.. सबको खुश.. रखने की कोशिश कर रही हूँ..!!

जन्म से मृत्यु तक

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अर्थ बहुत गहरे चिंतन ये काले है। अद्भुत हर बात विराट हर राज जन्म से मृत्यु तक सब निराले है। रूढ़िवादी विचार ज्यामतीय शैली के अंदाज सब लकीर के फकीर अपने ही कैनवास में उलझे अपने ही रंगों में डूबे अपने ही चित्र में उलझे  अपने ही इर्द-गिर्द चक्कर लगाते है। न कोई चमक  न कोई पुरुस्कार न कोई गुणगान ये कैसा कठोर नियम जीवन संसार है। चटख रंगों से प्यार सादा रंगों से इनकार है। मन में बोया प्रेम लहराया प्रेम पर जीवन कसौटी पर खरा न उतरा प्रेम। साधरण सी जिंदगी व्यय हो गई आप ही इतिहास के पन्नें भी रीते रह गए अकारण ही। जन्म से मृत्यु तक श्रृंगार हुआ  औरों द्वारा बीच का श्रृंगार खुद ही कर लिया औरों की खातिर स्थूल काया का मति भ्रम में। एक ही बिंदु  एक ही छांव-धूप फिर भी गम्भीरता से न लिया गया कोई प्रश्न कोई उत्तर मेरा। पूरा जीवन यूं ही बीत गया बीच मझधार में अब समझ में आया माटी की मेरी काया माटी था जीवन मेरा माटी में मिल गया ठंडा होते ही। ये आग का गोला बना मैं !!