संदेश

मई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक कहानी ऐसी भी....!!

कहते है शादी दो लोगों का नहीं दो परिवारों का मिलन होता है। लेकिन आज के माहौल में ये बात हर जगह सटीक नहीं बैठती है। सुचित्रा अपने सांवले रंग को लेकर बहुत परेशान रहती थी। हालांकि वो बहुत पढ़ी-लिखी और एक उच्च पद पर आसीन थी। तब भी वो अपने सांवलेपन से दुखी थी। या यूं कहें सब उसे दुखी कर रहे थे। उसका सांवला रंग ही उसकी शादी में बाधा डाल रहा था। उसके घर वाले भी जब-तब उसे उसके सांवले होने का ताना मार देते थे। इससे वो बहुत आहत होती थी। और अक्सर रोते-रोते ही उसकी रात कटती थी। हर दूसरे दिन उसे कोई न कोई देखने आ जाता लेकिन कभी उसके सांवले रंग के करण बात अटक जाती तो कहीं वो अपनी बराबरी का लड़का न पाकर मना कर देती थी। एक दिन एक लड़का दिनेश उसे देखने आया तो सुचित्रा ने अपने घर वालो से उसके सामने जाने से मना कर दिया और घरवालों से कहा कि यहाँ क्या कोई चीज बेच रहे है आप लोग, जो हर दूसरे दिन कोई न कोई खरीददार आ जाता है, और पसंद की चीज न पाकर मना कर जाता है।  ये बेइज्जती मैं और बर्दास्त नहीं कर सकती हूँ। तो सुचित्रा की माँ ने उससे कहा ये तो सबके साथ होता है। ये सब तो अक्सर लड़कियों को बर्दास्त करना ही पड़ता है

लहसुनियां

चित्र
गाड़िया लुहार रोज ठिकाने बदलते रहते है। सड़क किनारे कहीं भी तिरपाल की झोपड़ी डाल रह लेते है कुछ दिन। सड़क किनारे ही चूल्हा जलता है इनका और मोटी गर्म रोटियां सिकती है। और वही सिलबट्टे पर लालमिर्च, लहसुन की चटनी पीस सब खाना खा लेते है। लहसुनियां यही नाम रख दिया था गोमा लुहार ने अपनी बड़ी बेटी का। बेटी की उम्र 14 साल की थी पर रहती बड़ी औरतों के जैसी थी। उसकी गोद में हमेशा एक बच्चा टंगा रहता था। सब उसके इस बच्चे को उसका छोटा भाई समझते थे। और वो भी सबसे यही कहती थी। गोमा ने अपनी बेटी का लग्न बचपन में ही अपनी रिश्तेदारी में कर दिया था। अब उसके ससुराल वाले उसे ले जाना चाहते थे। पर गोमा अभी बेटी को भेजना नहीं चाहता था कुछ दिन क्योंकि एक सेठ का उमरदराज बेटा उसकी बेटी पर मर- मिटा था। वो जब भी आता थैला भर के राशन लाता था। और पूरा परिवार उस राशन पर ऐश कर रहा था। लहसुनियां का ये बच्चा भी उसी की देन था। गोमा ने सोच रखा था जब तक इस शहर में है तब तक वो लहसुनियां को अपने ससुराल नहीं भेजेगा। दूसरे शहर में डेरा डालते ही वो लहसुनियां का बच्चा खुद रख लहसुनियां को अपने ससुराल भेज देगा। जब तक यहाँ है अपनी माली हाल

तू जलता सूरज....मैं नर्म मखमली

चित्र
मैं गीत उदासी ले लिखती हूँ, तू हँस कर पढ़ना। मेरे लबों पर अपने लब मुस्कुराकर रखना। तू आवारा बादल मेरे शहर में जमकर बरसना। मेरी गली में रुककर बाढ़ बन, मुझे बहा ले जाना। तू जलता सूरज मैं मुलायम मखमल, तू मुझे बरखा के इंद्रधनुष  के हवाले कर, मेरी आगोश में चमकना। तू खजुराहो सा मैं अजंता एलोरा सी तू मुझे संस्कृत में प्रेमालाप करना सीखा देना। तू मुझे अंग्रेजी में शिमला की बर्फ की कहानी सुना देना। तू मथुरा का पेड़ा मैं राजस्थान की कचोरी तू मुझको कलकत्ता का रसगुल्ला खिला देना। तू दस्तक, मैं बंद किवाड़ों सी तू शारजहां, मैं मुमताज सी मुझको अपने महल में हिफाज़त से अपनी आंखों के सामने रखना। तू मेरा सोना पिया मैं तेरी बुलबुल तू मुझको सोहनी बना देना खुद मेरा महिवाल बन जाना। सुन~~~ तेरे आने से मेरा दिन होता है। जैसे सूरज के आने से उजाला होता है। तेरे जाने से मेरा मन रोता है, जैसे अमावश की रात में चाँद छुपकर रोता है। मेरी कविताएँ बहुत कटीली है, देख कहीं तेरा कुर्ता न अटक जाए, मेरे बालों में तेरा बटन न टंग जाए। सुन~~~ तू मेरा आकाश मैं तेरी धरती मेरी चहुं दिशाओं में तू मेरे हर राग-विराग में तू मेरी स्मृति में

रेड सिग्नल

जैसे ही रेड सिग्नल हुआ, हाथों में नकली फूलों का गुलदस्ता और गोद मे दुधमुंहा बच्चा लिए एक 25, 26 साल की लड़की मटमैली ओढ़नी में लिपटी गाड़ी की आगे की सीट की तरह तेजी से दौड़ी। फूल ले लो साहब, मेरा बच्चा दो दिन से भूखा है। कुछ पैसे दे दो साहब वो गिड़गिड़ाई। 'हट यहाँ से तुम भिखारियों का कुछ नही हो सकता सिग्नल हुआ नहीं कि दौड़े चले आते हो भीख मांगने शर्म नही आती तुम लोगों को'। कुछ काम-धाम क्यों नहीं करते हो ढंग का। वो पहले चुपचाप हाथ फैलाये सब सुनती रही फिर बोली शर्म तो बहुत आती है साहब भीख मांगने में लेकिन कोई काम पर रखता नही हम गरीबो को। साले सब कामचोर हो, काम करना ही नहीं चाहते। अब रेड सिग्नल ग्रीन सिग्नल में बदलने ही वाला था कि उस लड़की ने ओढ़नी थोड़ी सी सरका कर ब्लाउज के आगे के बटन खोल अपने दुखमुहे बच्चे को छाती से लगा लिया। साहब देखता रहा और झट अपनी जेब से रुपये निकाल उसकी हथेली पर रख दिये। और गाड़ी साइड में लगा उसे अपने पास बुला लिया। ये है आज के अमीर और गरीब दोनो अपनी अपनी जगह आज के परिवेश में ढल चुके।

रोटियां

सुनयना से रोज आटा ज्यादा लग जाता। और रोज रोटियां बच जाती उन बची रोटियों को से वो सुबह का नास्ता कर लेती थी। हालांकि सभी के लिए गर्म नास्ता बनाती थी। आज फिर जयेश विफर पड़ा, तुम इतनी ज्यादा रोटियां क्यों बना लेती हो, रोज ठंडी रोटी खाती हो। आटा कम नहीं लगा सकती क्या? सुनयना भी आज विफर पड़ी अब रोज रोटियां भी गिन कर बनाऊं क्या? बच्चे कभी ज्यादा खा लेते है तो कभी कम। बार-बार आटा नहीं लगता मुझसे। ये सुन जयेश का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। मैं कल से 2 रोटी कम खा लूंगा तो मर नहीं जाऊंगा लेकिन तुम कल से आटा कम लगाओगी बस कह दिया आज। सुनयना गुस्से का घूंट पी कर रह गयी और कल कम आटा लगाया उसने। आज बच्चों ने ज्यादा रोटियां खा ली, जयेश भी भरपेट खाकर उठा। अब सिर्फ दो रोटियां बची थी। वो आधा पेट खा कर सुकून से सो गई ये सोच.. अब कल कम से कम इस आटे के पीछे तो कोई लड़ाई नहीं होगी। ये कैसी लड़ाई बिना बात की। शायद हर दूसरे घर की कहानी है। पुरुष का अहंकार या एक स्त्री का अहंकार। आटा ज्यादा भी लग गया तो क्या?? और अगर आटा कम पड़ गया तो दुबारा क्यों नही लगा??

कब्र

चित्र
कब्र के कान नहीं होते? लेकिन मिट्टी ने मिट्टी की भाषा सुन ली। क्यों री तू कैसे मरी  ' देख सब कैसे रो रहे है। तेरे मरने पर भी चंदन की लकड़ी का इंतज़ाम किया है इन्होंने ' बड़ी भागो वाली है , कितना बड़ा परिवार है तेरा। सब नाटक कर रहे है जिज्जी, जब मैं जिंदा थी एक-एक रुपए के लिए मोहताज थी। कभी खसम के आगे तो कभी बेटों के आगे हाथ फैलती , बदले में गालियां और ताने सुनती थी। सारा दिन डंगरों के जैसे घर मे जूती रहती थी।  फिर घर में बहुएं आ गई, उनके आते ही मेरा वो छोटा सा कमरा भी मुझसे छिन गया। मेरी खाट आंगन के कोने में लगा दी गई। वहाँ दो घड़ी भी चैन न मिलता था। कभी बारिश तो कभी सर्दी तो कभी जेठ की लू सब सहती थी। और बदले में सुनती थी। 'कब तक ये बुढ़िया यूं ही सेवा करवाती रहेगी। कब पिछा छूटेगा इससे पता नहीं' ये जल्दी से निपट जाए तो हम गंगा नहा ले।

जलपरी.....

चित्र
जलपरी.... सुनहरी झील में सोने सी चमकती जलपरी, हर पूनम की रात बलखाती नदी से बाहर निकलती, नवयौवना का रूप धर कर। बर्फ सी पारदर्शी, संगमरमर की मूरत सी पूरे तट पर बिखरी शंख-सीपियाँ बिनती, और उन शंख-सीपियों संग खूब खेलती वो हर पूनम की हर रात को। बारिश के दिन आये चाँद नहीं निकला एक पूनम की रात, वो इंतज़ार करती रही चाँद का पर चाँद बादलों में छिप कर बैठा रहा। वो उफनती नदी से प्रश्न पूछती रही आज चाँद क्यों नहीं निकला? तो नदी बोली आज बादल का दिन है वो चाँद को आगोश में लिए बैठा है। इतना सुनते ही जलपरी रुआंसी हो गई और गुस्से में चितकबरी हो गई। उसका सौंदर्य बारिश में बह गया। वो मछली सी तड़प कर, मछली सी हो गई। चाँद ये देख दूर गगन में पत्थर हो गया और सूरज के पीछे छिप गया।

सौदेबाज क़िस्मत

क़िस्मत की क्या कहिये कभी आंधियों में रेत सी उड़ती है, तो कभी ओलो की मार सहती है, तो कभी हाड़ कपाती पूस में जम जाती है। रामदीन बहुत खुश था। बारिश इस बार अच्छी हुई थी तो उसकी कनक की फसल भी कनक सी चमक रही थी। लहलहा रही थी। रामदीन मन ही मन सारा हिसाब लगा कर चल रहा था कि उसे इस बार की फसल से आये पैसों से क्या-क्या करना है। उसे खुश देख उसकी पत्नी और 10 साल की बेटी भी बहुत खुश थे।  बेटी मन ही मन इस बार नया स्कूल का बैग लाने की सोच रही थी। और पत्नी एक टीवी जिसमें वो परिवार के साथ बैठ कर कोई नाटक देख सके लाने की सोच रही थी। एक दिन रात में हिम्मत कर बेटी बाप ले कंधों पर झूल गई।बाबा इस बार मुझे क्या दिलाओगे, अरे बिटिया तू जो कहेगी वो लाकर दूंगा तुझे मेरे कोई 4,6 बच्चे थोड़ी है तू तो  इकलौती है मेरी रानी बिटिया तू जो कहेगी बाबा तेरे लिए वही लेकर आएगा। बिटिया खुश हो सपने बुनती सो गई। पत्नी बोली इस बार सारा दरीदर धूल जाएगा, मकान ठीक कराकर जो पैसे बचे तो मेरे लिए भी एक छोटा टीवी ला देना। फिर उस पड़ोसन के चाशनी में लिपटे ताने नहीं सुनने पड़ेंगे। रामदीन बोला अरे सब ला देंगे तू चिंता मत कर अब सो जा। दूसरे ही

नसीब को पी....नसीब जी रहे है....!!

चित्र
इस दुनिया में सिर्फ वक्त आपका अपना है, वो सही तो सब सही वरना सब गलत। ऊपर ईश्वर का आकाश.. नीचे उसकी धरती.. बीच में इमारतें गढ़ता इंसान। अनूठी कल्पनाएं, उम्दा सोच, नायाब विचार संघर्षो में परिपक्व होता इंसान। गूंजता आत्मविश्वास पर.. दुविधाओं में तड़पता वर्तमान काल के मुख में समाती इंसानियत बगले झांकते दोगले रिश्तेदार रेलगाड़ी के डब्बे सी जिन्दगी बस पटरी पर दौड़ रही है। उपहास में एहसास गवां चूका.. ऊंघता विचार.. इंतजार मंजिल का.. पर सफ़र की धुप.. खत्म नहीं हो रही है। वक्त//वक्त की बात है। कभी इस राह कभी उस राह बस चल रहे है, खुद का यक़ी दबा ग़ैरों का यक़ी कर रहे है। उखड़ती नियति को, झूठी दिलासा दे, जीवन जी रहे है। इंतजार किसी का नहीं फिर भी सबका इंतजार कर रहे है। सबको स्वीकार कर खुद को ढूंढ रहे है। अपराध कोई नहीं फिर भी अपराध का दंश झेल रहे है। वक्त के अनुरूप ढलने की कोशिश कर वर्तमान को जी रहे है। नसीब को पी नसीब जी रहे है। बेमेल रिश्ते सी जिन्दगी हर बात में सवाल-जवाब करती सी लगती है। उधड़े मन को नोचती सी लगती है। सैकड़ो बार रो, खुद को मनाया है। अपनों ने हर ब

मांगलिक दोष......!!

चित्र
धूप में मुरझाता, बारिश में भीगता प्रेम बालकनी में खड़ा हो, वक्त की सुइयां गिनता प्रेम तेज आवाज़ में संगीत सुनता, हल्के-हल्के मुस्कुराता प्रेम। ऐसा ही प्रेम था सुरभि और सौरभ का। दोनों के नाम भी बहुत मिलते थे, और जाती भी एक ही थी। कोई रुकावट नहीं थी उनकी शादी में बस एक रुकावट के सिवाय। ज्योतिष की! ज्योतिष के अनुसार सुरभि सादी, और सौरभ मांगलिक था। मांगलिक मतलब तेज-तर्रार, गुस्से वाला, मनमानी करने वाला। जिसके साथ सुरभि का निबाह मुश्किल था। पंडित जी ने बताया था। बस तब से मुश्किल आन पड़ी थी। सुरभि के घर वाले ये शादी नहीं करना चाहते थे। पर सुरभि अड़ी थी शादी करूँगी तो सौरभ से वरना शादी ही नहीं करूंगी। उधर सौरभ के घर वाले भी किसी मांगलिक लड़की की खोज कर रहे थे। क्योंकि उनके पंडित जी ने बताया था अगर लड़की भी मांगलिक होगी तभी ये शादी टिकेगी वरना नहीं। यहाँ सौरभ भी अड़ा था शादी करूंगा तो सुरभि से ही वरना नहीं। दोनों के घर वाले बहुत परेशान थे इन दोनों की जिद्द और दोनो के प्यार से। एक दिन पंडित जी ने सौरभ के घर वालों को एक सुझाव दिया कि आप लड़के की शादी एक भैस या बकरी से करा दे तो ये मां

लिपिस्टिक....

चित्र
न कोई सुर सजे... न कोई रंग सजे... होंठो पर चढ़ा पर्दा... अब ये लाली...लिपिस्टिक... दिखा रिझाऊं किसको...!! मुश्किल समय है। कोरोना क्या आया महिलाओं की लिपिस्टिक भी खा गया। मास्क लगाना अनिवार्य है, लिपिस्टिक का भविष्य बर्बाद है। लॉकडाउन खुलते ही स्वर्णा ऑफिस के लिए तैयार हो गई। रात में ही सुबह कौन सी साड़ी पहननी है। कौन सा बैग लेकर जाना है। और उस बैग में क्या-क्या रखना है, सब तैयार कर लिया। पर आज उसने लिपिस्टिक नहीं रखी। लिपिस्टिक पड़ी-पड़ी उसका मुहँ ताकती रही। लेकिन स्वर्णा ने उसे कोई भाव नहीं दिया। बेचारी लिपिस्टिक पड़ी-पड़ी आंसू ढलकाती रही। एक समय था जब स्वर्णा के बैग में कुछ हो न हो पर लिपिस्टिक जरूर होती थी। किसे पता था इस बेचारी लिपिस्टिक की ये दशा होगी। पहले ऑफिस पहुँचते ही स्वर्णा एक कोट लिपिस्टिक का और लगाती थी। आज उसे ये कमी तो खल रही थी। पर लिपिस्टिक लगाने का आज उसका कोई मुड़  नहीं था। क्योंकि होंठ, मुँह सब ढके थे। ऑफिस में कदम रखते ही स्वर्णा को उसकी सहेली मीनल मिल गई, मास्क लगाए हुए। लेकिन उसकी आँखों में ढेर सारा काजल लगा था। आइब्रो भी पहले से बहुत ज्यादा घनी लग

लॉकडाउन

चित्र
आसमान में खड़े होकर धरती की पीड़ा नहीं देखी जा सकती। प्रवासी मजदूरों की समस्या आज सबसे विकराल रूप धारण कर चुकी है। अभी अपने घरों को लौट रहे है। गाँवो में वापस जा रहे है। बेरोजगारी.... क्या ये समस्या और बढ़ने वाली नहीं है?? शहरों में कामगार नहीं मिलेंगे, और गाँवो में इनको क्या काम मिलेगा?? समस्या जस की तस ही रहने वाली है, शायद भविष्य में भी। अपराध अभी कम जरूर हुए है पर भविष्य में ये और बढ़ सकते है, जो हम अभी देख नहीं पा रहे है। रामलाल का बेटा लॉकडाउन में जैसे तैसे पैदल चल कर घर पहुंच गया। फिर 14 दिनों के लिए सरकार के दिशा-निर्देश पर अलग रखने के बाद उसे उसके घर जाने दिया गया। वहाँ पहले से भुखमरी की जड़े जमी थी। जो थोड़ी बहुत ज़मीन बची थी वो बंजर हो चुकी थी, वर्षो से वहाँ कोई फसल जो नहीं उगी थी। रामलाल बिस्तर पकड़ चुका था दमे के रोग के कारण। सारा दिन खाँसता रहता था। पड़ोसियों ने पुलिस में शिकायत कर दी, पुलिस आई और रामलाल को ले गई। गाँव वालों ने उनके घर से परहेज करना शुरू कर दिया। पिता हॉस्पिटल में बंद घर में वो उसकी माँ, उसके तीन छोटे बच्चे, और पत्नी बंद। घर में जरूरत का सामान भी लग

ये कैसा दर्द.....

चित्र
ये कैसा दर्द है जो कभी मिटता ही नहीं, कभी रूह तो कभी जिस्म में पलता रहता है। हर दर्द में आंखे गीली गला रुंध जाता है। जैसे धूप में आई पसीने की बूंदे। तन-मन सब खारा करती है। दर्द का रंग भी कितना जिद्दी होता है कितना भी समझाओ खुद को पर टप-टप आखों से गिरता ही रहता है। दर्द हमेशा झुंड में आ घेर लेता है। जैसे इस जन्म के साथ-साथ पिछले जन्म का हिसाब भी चुकता कर रहा है कोई। दर्द थकान के हवाले कर उम्मीद को खाई में धकेल धूप में खड़ा कर परीक्षा लेता है। दर्द कैसा भी हो आंखों के रास्ते बाहर आ फैल ही जाता है। आत्मा की चीत्कार का स्वर गूंज ही जाता है। मन मे अमावश तन में रोग लग ही जाता है। स्लेटी आसमां को ताकते जमीं को निहारते फिसलते वक्त को पकड़ते सुबह से निकल शाम में पहुंच ही जाते है। रात में आंखों को रोने के नियम-कायदे सीखा जीवन में लगी आग बुझा ही लेते है। दर्द खुशियों की कब्रगाह उम्मीदों की उलझी गुत्थी उत्साह की दलीलें मायूसी के पसीने हर बात का रोना। आश्चर्य का मख़ौल जैसे शांत झील में कोई पत्थर मार किसी को चोट पहुंचा गहरी नींद से उठा देता है। दहाड़े मार-म

ये कैसी लाज...???

चित्र
तमाशा खत्म नहीं हुआ, खेल जारी है....। एक मुसीबत खत्म हुई नहीं कि दूसरी शुरू... बिशनसिंग के कोई संतान नही थी। सारी उम्मीदें खत्म थी। बहुत डॉक्टर को दिखाया लेकिन बात नहीं बनी। उसे तथा उसके घर वालों को बिशनसिंग की पत्नी ही बांझ लगती थी। दोनों मियां मजदूरी कर पेट भरते थे। लेकिन औलाद न होने के कारण आये दिन दोनों के बीच खूब झगड़े होते। घर वाले भी झगड़े का कारण उसकी पत्नी को ही मानते थे। एक दिन सड़क पर मजदूरी करते हुए बिशनसिंग को एक ट्रक वाले ने टक्कर दी दोनों पैर टूट गए शुक्र है उसकी जान बच गई। पति की तीमारदारी के कारण उसकी पत्नी भी काम पर नहीं जा सकी और उसकी भी नोकरी जाती रही। वो घरों में झाड़ू-पोंछा करती थी। घर वालों के रोज के तानों और कंगाली से परेशान हो उसकी पत्नी पड़ोसन के कहने पर एक तांत्रिक के पास जा झाड़-फूक करा आई। और औलाद की दुआ के साथ घर आई। सब सामान्य ही चला रहा था। बिशनसिंग बिस्तर पर पड़ा था 1 महीने से उसके पैरों में प्लास्टर बंधा था। एक महीने बाद प्लास्टर खुला लेकिन अब बिशनसिंग बहुत लाचार, बीमार, हताश था। नोकरी भी दुबारा नहीं मिली थी। वो सारा दिन घर पड़ा रहता था। करीब

दर्द का ये सफ़र... आखिर कब थमेगा...

चित्र
2020 क्या आया कईयों का जीवन तबाह हो गया। कई कोरोना की चपेट में गए और उससे ज्यादा इस महामारी में किये गए लॉकडाउन की वजह बर्बाद ही हो गए। सुगनाराम के दो बेटे है। बड़ा बेटा निक्कमा और छोटा भी कोई काम-काज नहीं मिलने के कारण निक्कमा। एक रिश्तेदार की मदद से सुगनाराम के छोटे बेटे को एक पानीपुरी का ठेला मिल गया। पर दूसरे शहर में। लेकिन परिवार राजी था उसे दूसरे शहर में भेजने के लिए। दूसरा शहर है तो क्या हुआ। कुछ काम-धाम कर कम से कम अपने परिवार का पेट तो भरेगा। यहाँ तो इस निक्कमे को खिलाओ और उसकी बीबी को भी जो सारा दिन पसरी रहती है। उसके दो छोटे बच्चों को भी खिलाओ। दूसरे शहर में जा सुगनाराम का छोटा बेटा जिसका नाम विशाल है। पानीपुरी का ठेला लगाने लगा। और उस पानीपुरी के लिए सारा सामान बनाने लगी उसकी बीबी जो सारा दिन पसरी रहती थी। काम चल निकला था। यहाँ के लोग खास कर औरते बहुत चटोरी थी। या यूं कहें कि उन्हें पानीपुरी बहुत भाती थी। रोज शाम को विशाल को फुरसत नहीं मिलती थी। उसकी पानीपुरी का स्वाद सबकी जबान पर चढ़ गया था। अब उसकी बीबी भी फूली नहीं समाती थी। लेकिन अभी इस पानीपुरी का ठेला

सफ़ेद रंग......

चित्र
सफ़ेद रंग.... बर्फ सा ठंडा न कोई प्रश्न न उत्तर एक उदासी, एक एकाकीपन बेरंग दीवारों का सफ़ेद रंग। ●●● निश्चित ही सफ़ेद रंग किसी को आमंत्रित नहीं करता। न मुस्कुराता है, न रोता है। बस अपनी जगह पड़ा-पड़ा फटी नजरों से सबको देखता रहता है। ●●● पति की मौत के बाद स्त्रियों को पहनाया जाने वाला रंग उसकी सभी कामनाओं को खा जाने वाला रंग इसी के सहारे बीतता है फिर उसका शेष जीवन। ●●● दोपहर का रंग धूप में बहते पसीने की गंध। बुजुर्गों के उकताहट का रंग उनके सफ़ेद बालों की तरह। उनकी खीज़ सुखी रोटी के टुकड़ो की तरह जो उनके गले मे अटक खाँसती रहती है। ●●● सांझी छत के बिखरने का रंग एक-दूसरे के गम न बांट पाने का रंग आंगन के बीच दीवार खींच जाने का रंग पुरखों की ओर ताकती आंखों का रंग पश्चाताप का रंग। ●●● ताजे दूध पर आई मलाई का रंग दही से निकलते मक्खन का रंग गर्म भात पर उंडलते देशी घी का रंग। ●●● बच्चों की जिद्द का रंग। आज सारे रंग मुझे मिलने चाहिए। बच्चों की खुशी में मिलते सारे रंग। ●●● सफ़ेद रंग यूं तो बहुत फीका फीका सा है। पर सारे रंगों का घर भी है। सारे रंग यहीं

माँ...

चित्र
इमरजेंसी वार्ड माँ एड्मिट है, पास किसी को जाने नहीं दे रहे है। माँ ख़ामोश, कोई हरकत नही है। बेज़ान शरीर! वार्ड के बाहर पूरा परिवार एकत्र है। सबको पता है माँ बस आज या कल की मेहमान है। सबकी आँखे गीली, सब चुप अतीत में खोए है। तभी एक नर्स बाहर आई, 'मांजी के लिए दवा लानी है'। इनका कोई है यहाँ 'एक साथ कई आवाज आई मैं हूँ'। वो किसी एक को पर्ची थमा गई। पर्ची में सिर्फ ग्लूकोज की बोतल और एक दर्दनिवारक दवा का नाम था। दवाई वाले से पता चला। घर के एक समझदार व्यक्ति ने कड़ा "डिसीजन" लिया। डॉक्टर से बात कर माँ को घर ले जाने की इजाजत मांगी। पर डॉक्टर तैयार नहीं थे। 'हम मरीज को आपको ऐसे नही ले जाने नहीं दे सकते'। 'अगर उनको कुछ हो गया तो ये हमारी जिम्मेदारी नहीं होगी'। लेकिन बहुत जिद्द करने पर और बहुत सारे कागज साइन करा लेने के बाद माँ को घर लाने की इजाजत मिली। माँ घर आने के बाद बस रात भर सबके साथ रही। सुबह हम सबको छोड़ भगवान के पास चली गई। जिस शरीर मे जान ही नही थी, डॉक्टर उसमें भी अपने हॉस्पिटल का बिल बना रहे थे। ये कैसी इंसानियत!

रंगनायक.....

चित्र
रंग बिना चित्र अधूरे है..., चित्र बिना रंग अधूरे...। चित्र एक धारा है तो... रंग तटबंध...। एक छोर सफ़ेद है तो... एक छोर स्याह...। रंगों का आश्रयस्थल... नज़रों में कैद है...। एक चित्र उकेरा... और उसमें सारे रंग भर दिए... तेरे नाम से...। अब रंगों में घमासान है...। तू परंपरागत रंग लाल... मेरे कैनवास का...। ले मैंने पीला मिला... तुझे सांझ की वेला का... नारंगी कर दिया...। तुझसे मेरा गहरा नाता... समुद्री हरा सा...। धानी खेत सा...। सजल नयन सा...। ले मैंने प्राथमिक लाल... रंगनायक कर दिया...।

बासिन कन्या

चित्र
सात भाइयों की एक बहन थी, जिसका नाम सुंदरियां था। माता-पिता नहीं थे। परिवार बहुत गरीब था। बहन सुंदरिया घर का काम करती, भोजन बनाती, लीपना-पोतना भी उसी की ज़िम्मेदारी थी। खेत पर भाइयों के लिए भोजन लेकर जाती और प्रेमभाव से उन्हें खिलाती। एक दिन सतवन (सबसे छोटा भाई)  ने लाल भाजी खाने की इच्छा जताई। सतवन ने नेहवश  सुंदरिया कोलिया (घर के पास का खेत) से लाल भाजी तोड़कर लाती है। साफ़ पानी से धोकर हंसिया से छोटे-छोटे टुकड़ों में काटती है। भाजी काटते समय उसकी हथेली में हंसिया लग जाती है। चोट पर सुंदरिया का ध्यान नहीं जाता। भाजी पकाने के बाद उसे पता चलता है कि उसकी हथेली कट गई है। उसका खून लाल भाजी में पक जाता है। सुंदरिया भाजी को फेंकना चाहती है, पर दोपहर हो गई है। भाइयों के पास भोजन पहुंचाने का समय हो गया है। सुंदरिया वही भाजी लेकर खेत पर जाती है। भाइयों को भोजन परोसती है। भोजन करते करते बड़ा भाई कहता है कि आज भाजी बहुत स्वादिष्ट बनी है। सुंदरिया ने कहा हमने तो रोज की तरह ही बनाया है। बड़ा भाई ऊंची आवाज में बोलता है,  'सुंदरिया बता क्या है इस भाजी में?' सुंदरिया बताती है, आज जब भाजी काट रह

एक वायरस ने दुनिया बदल दी.....!!!

चित्र
एक अदृश्य दुश्मन ने सबको घर बिठा दिया। जिंदगी के मायने ही बदल दिए। अब किसी के पास वक्त की कमी का कोई बहाना नहीं था। सबके पास वक्त ही वक्त था। दिखावे की दुनिया से दूर सब घर की चारदीवारी में सिमट गए। न जल्दी उठने की फिक्र न जल्दी सोने की चिंता। बस सबसे एक दूरी कायम हो गई। एक नई दुनिया का आगाज हुआ, मोबाइल सबका ताज हुआ। अब जिम भी मोबाइल में खुला, स्कूल, कॉलेज के एक्ज़ाम भी मोबाइल पर होने लगे, दफ्तर भी मोबाइल में खुला, सब काम मोबाइल से होने लगे। छोड़ो बात पुरानी अब ऑनलाइन जिंदगानी सबके जीवन मे यही अब एक कहानी। एक वायरस ने सबको बेहाल कर दिया, नया युद्ध अदृश्य दुश्मन से लड़ा जाने लगा। कभी जो सीखा था सब मिलकर रहो अलग मत रहो वही अब अलग रहना औषधि बन गई न जाने ये कैसी विपदा आन पड़ी। बाहर ताजी हवा बह रही है आसमान साफ-सुथरा हो गया प्रदूषण लगभग आधे से भी हो गया लेकिन हम घरों में कैद हो गए। चला मुसाफ़िर "मास्क" बांधे डर से थर-थर कांपे.. कुछ कहने का साहस नही अब उसमें.. भूख से आंते सिकुड़ गई.. जेब खाली हो गई.. धंधा बंद हो गया.. हर बात का डर.. उसमें समा गया..। भिखारी सी उसकी ह