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जुलाई, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

चलते चलो

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चलो साथ साथ चलो। हाथों में हाथ लेकर चलो। अपनी जिव्हा पर ईश्वर का नाम लेकर चलो। अपनी आंखों में आकाश सा तेज लेकर चलो। अपनी चाल में वायु सी गति लेकर चलो। अपनी बुद्धि में चैतन्य लेकर चलो। अपने मन में शिव का नाम लेकर चलो। मृत्यु का भय, जाती का अहंकार मिटा कर चलो। दिमाग में उपजा क्रोध शांत करके चलो। संकट के समय धीरज लेकर चलो। भुरभुरी ज़मीन पर मजबूत इरादों के साथ चलो। अध्यात्म को मन मे बसाकर चलो। मैं कौन हूँ, तुम कौन हो ये सवाल लेकर चलो। ईश्वर की खोज में कैलाश तक चलो। जीवन चलने का नाम है। चलते चलो बस चलते चलो।

स्त्री....!!

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स्त्री गडमड जीवन गडमड अनुभव गडमड उसका स्वरूप गडमड हो गया समाज में। सौम्य व्यवहार सौम्य जीवन धीरज धरते-धरते उठ गया उसका विश्वास खुद पर से ही। झूठी प्रशंसा झूठे लोग निगल गए उसका जीवन उसका वर्चस्व। घबराहट में पैर पसारे खुद को ही न जाने स्वपन लोक में जिये हक़ीकत से भागे अपने ही जीवन से अनजान शिकारी समाज में  फंस गई बेचारी तकदीर की मारी स्त्री बेचारी। दूसरों को जीते-जीते खुद को जीना भूल गई ऐ स्त्री एक जीवन अब भी तेरा शेष है। आ जी ले मरने से पहले अपना जीवन इस जीवन में !!

बथुए का साग

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आज बथुए का साग बना है घर में इसलिए छुटकी का मुहँ फूल गया क्योंकि उसे ये साग बिल्कुल पसंद नही है। अब उसे इससे ही रोटी खानी पड़ेगी, क्योंकि दूसरी कोई सब्जी आज नहीं बनेगी छुटकी की जिद्द के कारण। माँ, पिताजी, भाई, बहन सबकी डाँट खा वो दादी के बिस्तर में दुबकी पड़ी है। बस उसकी दादी ही उसकी जिद्द को सुन रही है। दादी ने उसकी माँ को फरमान सुनाया आज मैं भी ये साग नही खाऊँगी। जबकि उसकी दादी को ये साग बहुत पसंद है। दादी का फरमान सुना छुटकी की माँ ने कोई और सब्जी बनाने का प्रस्ताव रखा लेकिन दादी ने मना कर दिया। छुटकी बिस्तर में दुबकी-दुबकी सब सुन रही थी। वो सोचने लगी दादी आज सब्जी क्यों नही खाना चाहती। दादी को तो ये साग बहुत पसंद है। छुटकी उठी और दादी का हाथ पकड़ कर रसोई में ले गई और माँ से बोली जो दादी को पसंद अब से वही मेरी पसंद क्योंकि छुटकी दादी से और दादी छुटकी से बहुत प्रेम करती थी। और फिर छुटकी ने दादी के साथ वही बथुए का साग प्रेम भाव से खाया।

अपंग जीवन

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पेट की आग बुझाने की खातिर इंसान क्या नहीं करता। जीवन भर चाकरी, समझौता, घिसटता जीवन भी चुपचाप जी लेता है।  हमारे यहाँ के रिवाज भी अजीब है। दंत-कथाओं  को सत्य हक़ीकत को नकार खुद को सही साबित कर लिया जाता है। नागपंचमी में मांसाहारी सांप को दूध पिला खुद को धार्मिक भी घोषित कर लिया जाता है। पेट की आग बुझाने की खातिर वो दर-दर नोकरी मांगता रहा। पर किसी ने उसको काम पर नहीं रखा। कारण उसका कम पढा-लिखा होना और साथ में अपंग होना भी श्राप था। उसके लिए। एक रात वो चौराहे पर असहाय बैठा था। तभी एक चोर वहां से गुजरा तो उस चोर को उस पर दया आ गई। उस चोर ने उससे बातें की तो उसने अपनी सारी व्यथा सुना दी। तब चोर ने उसे अपने साथ चोरी करने का प्रस्ताव दिया। तो उसने ये प्रस्ताव ठुकरा दिया। तब चोर ने उससे कहा मैं भी चोर मजबूरी में बना पर तुम्हारा हौसला देख अब मैं भी चोरी नहीं करूंगा। चलो हम एक चाय की थड़ी खोल चाय बेच खुद का गुजारा कर लेते है। लेकिन अब उसने मना कर दिया कहा मैं तुम्हारे साथ चोरी करने के लिए तैयार हूं। तब चोर ने कहा  "बड़े अजीब शख्स हो चोरी करना चाहते हो, जबकि मैं ये चोरी करना छोड़ना चाहता हूँ।&qu

तितली सा मन

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हर पल मन भटक जाता है, कभी इस तरफ तो कभी उस तरफ लुढ़क जाता है। ये मन भी अजीब है, कभी उदास तो कभी यूं ही मुस्कुरा जाता है। कभी सोता हुआ जागता तो कभी जागता हुआ सोता मन बिन बारिश वर्षा में भीग जाता है। तो कभी यूं ही हवा में उड़ जाता है। तितली सा मन जाने क्या सोच सरसों संग पीला गुलाब संग लाल हो जाता है। यूं ही भागता मन कभी धान के खेतों में  तो कभी किसी बाग में झूम जाता है। तो कभी खंडहरों में भटक जाता है। तितली सा मन तितली बन उड़ जाता है। फुर्ररर हो जाता है !!

सच और झूठ

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क्या सच क्या झूठ हर खेल में सय और मात है। शतरंज के खेल सी जिंदगी स्पर्धा में जीवन खाक है। बड़ी-बड़ी आखों में भी प्राचीन नदी का वास है। ऊंची आवाज में झूठ नीची आवाज में सच खुशहाली का अकाल जिंदगी दो धारी तलवार है। सच के बगल में झूठ खड़ा प्रमाण की क्या आवश्यकता है। खोटे सिक्के सा झूठ कठिन सच के सामने गिड़गिड़ाता सा खड़ा है। घोर आश्चर्य  झूठ ने स्वांग रचाया फैसले में.... सच ने साक्ष्य जुटाया झूठ झिड़की के साथ हारा है। सच ने दौड़कर खुद को  बांहो का हार पहनाया है।

गहरा दर्द

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दर्द कैसा भी हो आंखों का रंग श्वेत चेहरा गीला हो ही जाता है। देह का भार शून्य मन का भार अधिक हो ही जाता है। प्यासी आंखों में समुंदर का तूफान आ ही जाता है। न सांझ का पता न सवेरे का पता रात बेसुध मौत सी लगती ही है। देह रुग्ण, मन रुग्ण हो ही जाता है। कैसी विचित्र बात है ज्यादा खुशियों को ग्रहण की मारक दशा लग ही जाती है। सबको खुश करने के चक्कर मे इंसान खुद मर ही जाता है।