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जनवरी, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

समय की धारा...!!!

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समय की धारा में बहते-बहते.. देखो हम कहाँ आ गए। जन्म-मृत्यु की पोशाक पहने.. गहरा अनुभव लिए, नाउम्मीदी की खाई में धसते जा रहे है। जरूरतों का गहना पहने.. आँखों में छटपटाहट लिए.. सच्चाई के दुशाले में लिपटे.. खुद को समय की कील चुभा.. उलझनों की आग में, स्वाहा हो रहे है। तपती समय की धारा में.. बारिश की बूंदों का स्वांग.. छाती जमा देता है। मन उजाड़ देता है। जंगली बेल सा.. मन को जकड़ लेता है। धरती गगन ओढ़े.. हमें पुचकार रही है। पर हम खुद को.. समय की भेंट चढ़ा.. देह के पार.. अनिर्णय के शाप में.. खुद को जला चुके!!

नियति का विधान...!!!

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नियति का विधान विचित्र है। संसार का सबसे सुंदर फूल दुर्गम घाटी में खिलता है। कदम्ब का फल बहुत सुंदर होता है, पर मधुर नहीं। सांच की आंच पर हर इंसा पकता है। राई सी जरूरते तरसता मन, मोहताज़ खुशियां समय की आंधी में बिन शोर उड़ती रहती है। कतरे-कतरे में खुद को गलाता इंसा सब स्वीकार करता है। क़िस्मत को कुछ मंजूर नहीं ये सोच तसल्ली का घूंट पी लेता है। भीतर तक आहत बस मद्धम-मद्धम गीत गुनगुना लेता है। नँगे पैर धरती का स्पर्श करता, सूरज की आभा तले गुड़हल के फूल सा मुस्कुरा लेता है। अपनी झोपड़ी में खुद को टटोलता, बरसते नेह से अपनी छवि के चक्कर लगा सिमटकर सो जाता है। नियति का विधान विचित्र है। हर संभव में असंभव मिला, अँधेरे में उजियारा तलाशता इंसा.. निर्दोष जीवन, काल के ग्रास में अचरज भरा जीवन जी लेता है!!

तस्वीर जीवन की...!!!

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जिन्दगी से निकल अखबार के पन्नों में सिमटती जिन्दगी, नसीब का सिक्का उछालती जिन्दगी। परम्पराओ को ढोती भेड़ चाल चलती जिन्दगी। इंसानी जरूरते पीतल पर सोने की परत चढ़ा, सही-गलत का भ्रम पाले जिन्दगी की टकसाल में आम होती जिन्दगी। मान-सम्मान का अपव्यय बाजारी दृश्य में, खुद को खंगालती जिन्दगी। व्यवहार का बेतरतीब सलीका अनमने रिश्तें कुंठित भरोसा जैसे को तैसा में, निवेश करती जिन्दगी। सब कुछ भूल कर भी, कुछ नही भूलती जिन्दगी। महंगाई के सिक्के जमा कर जरूरतों पर नसीब का पैबंद लगा, ख्वाइशों का गला घोंटती जिन्दगी। गुम हो चुकी जिन्दगी परिन्दों सी उड़ने की चाह में जिन्दगी से निकल तस्वीर में टंगती, कभी तस्वीर से निकल जिन्दगी में टंगती, अपने साहस का परिचय देती जिन्दगी!!

तुम्हारी दासी...!!!

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एक सुकून तुम बुनते हो, एक सुकून मैं बुनती हूँ। कितना अंतर है दोनों में। तुम खुद को स्तम्भ समझते हो, मैं नींव का पत्थर बन खो जाती हूँ। तुम्हारा वामा-अंग कहला, जीवन धुरी तय करती हूँ। नहीं करती कोई शिकायत, चुप-चाप सब सह जाती हूँ। तुम्हारी दासी बन, तुम्हारा जीवन सँवारती हूँ। खुद के लिए वक्त नहीं मिलता, पर पूरे घर को वक्त देती हूँ। मेरे शौक अब कुछ भी नहीं। सबकी खुशी में खुशी ढूंढ़ लेती हूँ। तुम्हारी कमियों को अपनी कमी बता, सब ढक देती हूँ। तुम्हारा प्रेम अब गुजरे वक्त की कहानी लगता है। मेरा प्रेम घर के आंगन में बस गया। मेरा हृदय जम गया, मेरा स्वाभिमान खो गया। लेकिन तुम्हारा अभिमान अब भी जारी है!!

अनकहा दर्द...!!!

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उदास मन में पनपे उदासी भरे शब्द.. मुरझाई शाम के उदास गीत. बीहड़ में भटकता लावारिस मन. खूंटी पर टंगी यादें. जिसे ताक-ताक रोता दिल। सब कुछ पीछे छूट जाने की कसक. भूमि-हीन मजदूर सी, डबडबाई आँखों से हाथ की लकीरें कोसता। हर बंधन से मुक्त होना चाहता, खुले मैदान में साँस लेना चाहता, बरसात में भीग मिट्टी में दब जाना चाहता, अपनी भावनाएं कह देना चाहता, अपने हृदय का स्वर, चीख़-चीख़.. सबको बता देना चाहता, अभी मैं मरा नहीं जिन्दा हूँ। मुझे थोड़ा सा प्यार दे दो. थोड़ा सा अपनापन दे दो. मुझे यूँ अकेला न करो. मैं भी साँस लेता इंसान हूँ, मुझे थोड़ा सा सम्मान दे दो!!

दिल के दरवाज़े में अटके शब्द

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दिल के दरवाज़े में शब्द अटक जाते है। मन की किवाड़ में घुट जाते है। मुँह से निकलते नहीं सीना चीर जाते है। गगन में उड़ते ज़मी में ख़मोश हो जाते है। कलम से निकल कागज़ पर महकते है। कभी शूल से चुभते कभी जाऱ जाऱ रो कागज पर निढाल सो जाते है। मन के हर कोने को झकझोरते है। समय की दरारों को बांध मन के भावों में ढलते है। समय की धुप में छाया कर आराम भी दे जाते है!!

उस पार जाऊँ कैसे....!!!

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की जाणां मैं कौन? की जाणां तू कौन? सत्य क्या?, असत्य क्या? कुछ न समझ आये। सितारों के संकेत क्या? नसीब के खेल क्या? मन की दुविधा तन की व्याधि क़िस्मत पर समय की लिखावट कैक्ट्स जैसे चुभते सवाल रेत में दफ़्न मायूस उत्तर डूबती आँखे गले में घुटती सांसे ठंडी पड़ती अस्थियां जीवन का स्वांग रचते सामाजिक पहलू। विषैले समझौते कैसे हर पल डसते है। खुद के गुनाह ढूंढते खुद को दोष देते है। परम्परा में जीने के आदि सबके बीच सुलग घाट की सीढ़ियों पर निढाल होते है। डर के साए में नदी में उतर चैन से सोते है!!