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जेवर

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गिरवी पड़े जेवर की क़ीमत क्या है? बदन को सजा मन को छले उस जेवर की क़ीमत क्या है? वक्त के पांव में घुंघरू डाल वक्त को वेवक्त कर दे उस जेवर की क़ीमत क्या है? सरे बाजार डराए चारदीवारी में घबराए उस जेवर की क़ीमत क्या है? सारी कमाई निगल मन हर्षाये उस जेवर की क़ीमत क्या है? सुनो~~●● जेवर तो बहुत क़ीमती था। पर ये सिर्फ समाज की नजरों में चढ़ने का एक जरिया था। सच मे वो सिर्फ तन सजाता था। मन भटकाता था। थके पांव में बेड़िया डाल बहुत रुलाता था। रौशनी में दिखावा अंधेरे में चढ़ावा था। ये जेवर बहुत क़ीमती था। सबकी नजरों में वजूद भीतर खोखला था। ये जेवर बहुत क़ीमती था!!

खिलौना

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खिलौना माटी का अश्कों की बूंदों से पिघल अपना तन-मन वजूद सब खो बैठा। आंख-मिचौली सा जीवन उसका ग़ैरों के हाथों की कठपुतली बन दुसरो का मन बहलाता रह गया। न सुनी न देखी उसकी पीड़ा किसी ने, बस अपने हिसाब से सबने खेल खेला उससे। उसके बदन में कील चुभा, कमरे में सजा सब हँसे मजे ले ले कर। उससे एक बार न पूछा तू मौन क्यों है। तू परेशान क्यों है। बस धरातल पर खड़ा कर अहसान तले दबाया उसे। उसकी छवि तो दुर्गा सी थी, अबला बना खुद के हिसाब से सबने छला। वो तो खुद उपहार थी, तुम क्या उपहार देते उसे। कुछ सिक्को में मोल लगाते, जाऱ-जाऱ रुलाया उसे। क्या शिला दिया प्रेम का उसके नसीब पर ही तीर चला अकेला छोड़ा उसे। वो तो माटी की मूरत थी, पिघल गई खोखली बातों से। अब तो ज़मी में दफ़न हो चुकी कब्र से न उठा उसको। तेरी जिंदगी से दूर जा रही है, अब भूल जा उसको। तेरी जिंदगी के सारे गम ले गई है, बिन बोले तुझे। तू क्या प्रेम करेगा वो तो मर कर खुद को छोड़ गई है तुझमें!

कभी तो सोचिए

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बासी रोटी गले मे ठूंस चल पड़े शाम की रोटी के जुगाड़ में। भूख क्या है उस बच्चे से पूछिए जो भूखा ढाबे वाले के यहाँ काम करता है। अमीरों को भूख नही लगती और गरीबों को दो वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब नहीं होती। हमेशा ऊपर की तरफ न देखिए, कभी जमीं पर चलते पैरों को भी देखिए। झुलसाती धूप, हाड़ कंपाती सर्दी, आंधी-तूफान में जब गरीब के सिर पर छत नहीं होती है तो सोचिए उसका क्या हाल होता होगा। खुद में इतने न खो जाइये कि कोई और नजर ही न आये। ऊर्जा से ऊर्जा जुड़ती है। इंसान से इंसान। इसलिए कभी किसी जरूरत मंद को भी गले से लगाइए। मृत्यु आने से पहले क्षणभंगुर जीवन को किसी नेक काम में जरूर लगाइए। याद कीजिये बचपन की वो बातें जब दरवाजे पर आए किसी भिखारी को माँ के कहने पर रोटी दे आते थे। कितना सुकून मिलता था उस वक्त आत्मिक शांति मिलती थी। शहरों के बंद कमरों में तो सिर्फ व्यंजन होते है। आत्मिक शांति नदारद होती है। शहरों में तो सिर्फ सहूलियत का ख्याल रखा जाता है। पैसों का हिसाब रखा जाता है। तमाशा ऐ जिंदगी का बखान किया जाता है। जो आ जाये थोड़ा सा भी दर्द तो सरेआम किया जाता है। अच्

खट्टी-मीठी जिंदगी...!!

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ख़यालो की नरमी में खट्टे-मीठे अनुभव लिए जिंदगी चली जा रही है। मुक्कमल जहाँ की तलाश में बिखरी जिंदगी बस चली जा रही है। दुख के समुंदर में सुख डूब गया बेज़ान इंसान बस ताकता रह गया। अहसास बयां करते करते सांसे थम गई, पर किसी की समझ में ये जिंदगी न आई। बरसों इंतज़ार किया पर ख़्वाब हक़ीकत में न ढले। जद्दोजहद का नतीजा भी कुछ खास न निकला। जिम्मेदारियों के पहाड़ के नीचे कोहरा बहुत है, हर दृश्य धुंधला मन पर बोझ भारी है!