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पाती तेरी-मेरी

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सुनों~~ मेरी शून्यता में भरते  ईश्वरीय वरदान से हो तुम। मेरी ऊर्जा के स्रोत जहाँ मुझमें अदम्य साहस भरता है। सुनों तुम्हारे पास तो  मेरी हर बात का उत्तर होता है, फिर क्यों सवालों के कटघरे में मुझें निरुत्तर करते हो। और यूं ही आंखों से चिढ़ाकर बाहों के घेरे में जकड़ते हो। सुनों~~ मूल्य बात का नहीं तेरे साथ का है। जो खुशबू बन मेरे संग-संग चलता है। वक्त तो पहले भी गुजरता था, पर अब इंतज़ार में भी दिल बहलता है। काश संग तेरा पहले मिल गया होता, तो हम और जी लिए होते। पर कोई गम नहीं जो मिला वो भी कम नहीं। सुनों~~ जब तुम थक जाओ सबको निभाते-निभाते मुझे सिर्फ एक आवाज देना। जब कोई न हो तुम्हारे पास तुम मेरे पास आ जाना। जब तुम अकेलापन महसूस करो मुझे बुला लेना अपने पास। मैं हर पल तुम्हारा इंतज़ार करूँगी जब जब तुम्हें मेरी जरूरत होगी। वादा कोई न करूँगी। बस अपने प्रेम का वचन निभा दूँगी।

कलम से निकल कागज पर बिखरी कविता

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कितनी ऋतु आई कितनी गई कभी बसंत खिला, कभी गुलाल उड़ा। कभी गुलमोहर, कभी पलाश खिला। कभी शरद के गुलाब पर पड़ी ओस ज़मीं तो कभी अमलतास चटका। डाल से फिसल कर वर्षा बूंदे ज्यों ही ज़मीं पर पड़ी हर तरफ फसल लहराई। क्या जाने क्या सोच कर हर कविता कलम से निकल कागज़ पर बिखर गई। कभी रक्तरंजित हो रोइ तो कभी निर्मोही बसंत सी हर डाल पर इठलाई। कभी देवो के चरणों मे पड़ी तो कभी वीरों के पथ पर चली। कभी कौतूहल का मृग हुई तो कभी धतूरे सी मष्तिष्क में बौखलाई। कभी भौहों में मिली तो कभी आंखों में बिछड़ी। कभी कोमल कभी कठोर कभी चंचल लाल-पीले शामियाने बांधे घुटनों के बल सोई कभी शीर्षक के साथ तो कभी बिना शीर्षक शांत हुई!