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जुलाई, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जीवन यात्रा.....

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जीवन यात्रा कितनी गहरी और  विराट है। ये हममें से कोई नही जानता..... दलदली जमीन पर उड़ने की कोशिश बेकार है। वहाँ तो एक- एक कदम हल्के से रख आगे बढ़ना पड़ता है....। पानी की सतह पर लहरों के साथ सूरज की किरणें अठखेलियां करती है और आगे बढ़ जाती है। वहाँ रूकती नही है....। जीवन यात्रा में बहुत से लोग जुड़ जाते है और बहुत से बिछड़ जाते है। ये एक लंबा सफ़र है....। जीवन-संघर्ष में घटनाओं का दौर चलता रहता है। रुकता नहीं ये घटनाएँ मटमैले पानी की तरह होती है। थोड़ी देर रुकने पर ही कचरा तलछट में बैठता है फिर पानी साफ दिखता है। हम जो सोचते है वही पाते है....। "आकर्षण का सिद्धांत भी यही है, हम जो सोचेंगे वही चीज हमारी तरफ आकर्षित होती है, हमारा दिल दिमाग उन्हीं चीजों को पाने की कोशिश करता है। लगातार उन्हीं चीजों को सोचने की वजह से हम पाते भी वही है....। अच्छा सोचते है तो अच्छा बुरा सोचते है तो बुरा।" जीवन में प्रेम भी बहुत महत्वपूर्ण है....। "प्रेम वो तत्व है जो दिखाई नही देता लेकिन ये उतना ही सच है जितना हवा और पानी। ये अभिनय की तरह है, जीवन है, आगे बढ़ने की ऊर्जा है। ये ल

मेरी अंतरात्मा.....!!

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मेरी अंतरात्मा में एक भूचाल आया संमुन्दर का तूफान मेरी छाती पर आ धमका आँखों से नीर की बौछार हुई हर तरफ नमी बिखर गई ऐसा लगा मानो मन को दीमक चाट गईं हर आस पर  धूल की परत चढ़ गई मकड़ी के जालों में लिप्टी हर उम्मीद  मुझे नीचे धकेल रही है। बर्फ के पहाड़  बदन जमा रहे है। आँखे रोई होंठ हँसे जिस्म अपनी रफ़्तार से चल रहा है। वक्त के दरिया में घड़ी की सुइयां समा रही है। रंगमंच पर कठपुतलियां कर्तव दिखा अपना अस्त्वि तलाश रही है। पर जिन्दा अभिनय करना भूल गयी है। मन में अंगारे जल राख में तब्दील हो गए हर रिश्ते का सच जान विश्वास की डगर पाताल में धस गईं मेरा प्रतिबिम्ब अब ओझल होने लगा है। मेरी स्मृतियाँ मानसपटल से गायब होने लगी है। लेकिन..... मेरी मुस्कुराने की अदा अब भी जारी है। भावनाओं में बहने की अदा अब भी जारी है!!!

बरखा आई.......⛈⛈⛈

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बरखा आई⛈⛈ हरियाली लाइ⛈⛈ जोड़, ताल तलाई⛈⛈ सब भर गए⛈⛈ बाग, बगीचे⛈⛈ नये हो गए⛈⛈ कागज़ की नइया⛈⛈ घर से बाहर आई⛈⛈ मौसम का लहराता रंग⛈⛈ इश्क़ पर सवार हुआ⛈⛈ चूड़ियों भरे हाथों पर⛈⛈ मेहँदी का श्रृंगार हुआ⛈ अमवा की डारी पर⛈⛈ झूले का आगाज़ हुआ⛈⛈ सबकी जिभवा पर⛈⛈ घेवर का स्वाद चढ़ा⛈⛈ सावन की झड़ी⛈⛈ ऐसी लगी⛈⛈ हर मन आनन्दित,⛈⛈ हर्षित हुआ !!!⛈⛈

ख़ामोश अल्फाज़........!!!

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खामोश अल्फाज़ दर्द सहते है। यादों में चुपचाप रोते है। कलम से निकल रीते पन्ने भरते है। चीख चिल्ला वहीँ पसर जाते है। कभी जंगल में खो जाते है। कभी मानव की सरपट भागती दौड़ में शामिल हो जाते है। अपने बदन में जलते दूसरों को सुकूं पहुंचाते है। जिसके पास जाते उस जैसे बन जाते है। न करते कोई शिकायत हर महफ़िल में खड़े हो मुस्कुराते है। नँगे बदन की नँगी भाषा, कभी राजशाही भाषा, हर तड़प में रोते हर खुशी में हँसते है। न कोई आकार प्रकार न कोई रंग जो जैसे चाहे उसमें ढल जाते है। भूत, वर्तमान, भविष्य सबमें खुशबू भरते है। चेतन मन अवचेतन मन सबमें आलिंगनबद्ध होते है। विज्ञान में चमत्कृत लोगो में भ्रमित भी होते है। वक्त की रफ्तार में बहते जिंदगियों में ठहर भी जाते है। खामोश अल्फाज़ जो जैसे चाहे उसमें ढल जाते है। उस जैसे बन जाते है। उस जैसे बन जाते है...!!!

वेदना......

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तूफान उठा दिल में आँसुओ के साथ रक्त बहा आँखों से जुबां खामोश मुस्काई मन ही मन ऐसी टूटी शायद ही जुड़ पाऊ क्रोध का घूंट पी मन को दफ़ना दिया किसी पर यक़ी न करने की कसम खा फुट-फुट रोइ फिर बर्फ का टुकड़ा रुमाल में लपेट आँखों पर रख यादों के समुंदर में जब पैर रखा जिस्म नमकीन हुआ बर्फ के टुकड़े में दबी आँखों से फिर अश्क़ो की धारा बहने लगी मन बीहड़ में भटक कर रेतीला हुआ खुले आकाश में उड़ समुंदर में गिर शांत हुआ बोझील मन तड़प कर हिम हुआ....!!!

सकारात्मक विचार....

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स्पष्ट देखने के लिए पानी का स्थिर होना जरूरी है। इसी तरह जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए सकारात्मक विचार और मन का स्थिर होना जरूरी है। हमें अपने मन की गहराई में उतरकर ये सोचना होगा की क्या हम वाकई ईश्वर द्वारा प्रदान की गईं जिंदगी को ढंग से जी रहे है, या नहीं ये सवाल हमें खुद से करना है। किसी और से नहीं। आप सोच में पड़ जायेंगे आपको लगेगा की हमनें बहुत कुछ खोया है जैसी जिंदगी की कल्पना हमनें की थी वो तो हमें मिली ही नहीं ये बहुत कम लोग सोच पायेंगे की जो मिला वो भी बहुतो के नसीब मे नहीं है। हमारी विचार शैली अजीब है। जो मिलता है उसमें खुश नही होते जो नहीं मिलता उसके पीछे भागते है। जो हमारे नसीब में नही है वो हमें नहीं मिल सकता ये मनाने को हम तैयार ही नही होते है।  हमे अपने जीवन में बस कर्म करना है फल अपने आप कर्म के अनुसार मिल जाता है। नसीब बहुत कुछ है पर बिना कर्म के जो नसीब में लिखा है वो भी नही मिल सकता। हमे खराब परिस्थितियों में खुद से संवाद करना आना चाहिए फिर हम खराब से खराब स्थिति में भी जीवन के सूत्र ढूंढ़ सकते है। हमारे अधिकतर प्रश्नो के उत्तर

अँजुरी भर प्यार.........

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तुम लाना..... एक मुट्ठी सुकूं अपनी अँजुरी में डाल देना मेरी झोली में मेरा भरोषा लौटा देना अपने नेह से मैं अपने पल्लू में गांठ लगा लूंगी तुम्हारे स्नेह का तुम उत्सव का चारों पहर ढूंढ़ लाना भर देना मेरी जिंदगी में तुम संघर्ष में मेरा सम्बल बनना मैं विजय पताका तुम्हारे नाम कर दूँगी तुम शरद में ओस में डूबे गुलाब लाना मैं उस गुलाब में डूब जाऊँगी तुम संग तुम उस तालाब नीचे आना जहाँ अमराई चटकी है सारे गीले-शिकवे भूल गले लग जायेंगे दोनों आधे-आधे पुरे हो जायेंगे पुरे हो जायेंगे.....!!!

जिस्म और रूह क्या फर्क दोनों में......

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जिस्म और रूह...... क्या फर्क दोनों में जिस्म में ही तो रूह बस्ती है। पर सच ये रूह एक ऐसा सच  जो कभी नहीं मरता जिस्म माटी का पुतला  मिल जाता है एक दिन माटी में......!!! मेरी निशा घुलती है आँसुओ में..... ढलती है तकिये का कोना गिला करते हुए कब सुबह होती है यादों में पता नहीं पर सुबह खुद को सम्हाल फिर खड़ी हो जाती हूँ.....!!! तुम कितनी आसानी से सब बोल खुद को मुक्त कर लेते हो..... नहीं सोचते एक बार भी मेरे बारे में तुम्हे सब की परवाह पर मेरी नहीं क्यूँ??? तुम थोड़े से लापरवाह हो भोग, आनंद में लिप्त हो तुम्हे यही जीवन का सच लगता है। ये छणिक सुख तुम्हें बहुत भाता है। न जाने क्यूँ??? तुम गैरों की खतिर अपनों को भूल गए जिस्म के सुनहरे रंग में अपनी परछाई भूल गए चंचल सुख में समृद्धि का सुख भूल गए तुम किसी के पाश में मेरे हृदय का पाश भूल गए न जाने क्यूँ??? तुम मेरे अश्क़ो की धारा में अविरल बहते हो...... मेरे जिस्म में सांसे बन रहते हो मेरी उषा में तुम, निशा में तुम मेरे सत्य में, असत्य में भी तुम मेरे जिस्म की बाती में लौ बन जलते हो

भूल हुई.......

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भूल हुई जो छांव की तलाश की धुप की घाटी में खड़ी हो यहाँ तो निर्जन आसमां सुनी धरती सर/सर की आवाज़ करती रेत पवन के सूखे नमकीन झोंके मौसमों को धोखा देती पीपल, बड़ की जटाएं दूर दूर तक फ़ैली उदासी पंछियो के शोर से हैरां है!! भूल हुई जो खुशियों की तलाश में गहरे सागर में उतरी वो तो निर्जन खाई है पैरों में छाले पड़ गए हाथों की लकीरें मिट गई चेहरे पर धूल की परत चढ़ गई झुंझलाहट में अपनी डगर भूल गई मंजिल का कुछ पता नहीं क्या पता अब कौन सा रास्ता किस ओर...!! भूल हुई जो सपनों के बाग से खुशियां चुराने की कोशिश की आँखों में नमी भरे होंठों से हँसती रही सबकी खुशियों की खैर मनाती रही खुद दिल ही दिल में बुझती रही नदियां के पानी में उतर सोती रही !!

बारिश की बूंदे बन धरती के गर्भ में समा जाने का दिल चाहता है.....

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बारिश की बूंदे बन गिरना चाहती हूँ, आसमां से समा जाना चाहती हूँ, इस धरती के गर्भ में विदाई लेना चाहती हूँ, मतलबी दुनिया से मन मुरझाई पवन का झोंका बन चूका टूटे पत्तो पर अश्क़ बन ठहरा है। दिल रोने के लिए काले बादलों का सहारा लेना चाहता है। अपने परायो का भेद तलाशना चाहता है। गहराई नसीब की नापना चाहता है। गैरों को इल्ज़ाम देने से पहले खुद को इल्ज़ाम देना चाहता है। किसी पर यक़ी न करने का पैगाम देना चाहता है। अब खुद से रूठ जाने का दिल चाहता है। रेत में रेत बन उड़ जाने का दिल चाहता है। आँखों की नमी में बह जाने का दिल चाहता है। बारिश में बारिश बन इस धरा में सुख जाने का दिल चाहता है !!!

दोनों आसमां के फ़रिश्ते सूरज...चंदा......

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तुम सूरज,... मैं चंदा... रहते है दोनों आसमां में तुम खुद जल औरों को रौशनी से नहलाते हो... मैं शांत शीतल बन सब को नींदों का सुकून देती हूँ... मैं रोज घटती बढ़ती रहती हूँ... मैं मन हूँ,... और तुम तन... तुम और मैं दो जिस्म एक जान,,... उतरते है। जब आसमां से पहाड़ी पर सैर के लिए,,... तुम सागर में खो जाते हो,,... मैं तुम में विलीन रहती हूँ। पहले से तुम दिन के पहरी... मैं रात की पहरी... तुम कण/कण में खिलते हो... मैं जन/जन में मचलती हूँ... तुम झील/ताल सब में चमकते हो... मैं सब में मद्धम रौशनी भरती हूँ... तुम पौ फटते उग आते हो... मैं रात होते खिल जाती हूँ... मैं तुम में तुम सी हो जाती हूँ... तुम रात में छिप जाते हो... मैं रात की रानी... तुम दिन के राजा कहलाते हो... दोनों आसमां के फरिश्ते पृथ्वी का जहाँ सजाते है... सजाते है...!!!

वर्षा ऋतु.......

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वर्षा ऋतु आई जम कर घटायें बरसी मेरा चंचल हृदय मुस्काया बिन शब्दों के तान छिड़ी बिन घुँघरू पैरों को ताल मिली बिन सिंगार चेहरे की आभा निखरी चारों दिशाओं में मौसम लहराया मन के आंगन में सोंधी महक बन तू आया मीठी छुअन बन महसूस हुआ ये देख काली घटाये बौराई झुंझलाई जम कर बरसी पागलों सी रच रच बरसी !!!

पलकों से गिरती यादें.......

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बरखा की बूंदे जब गिरती है...अम्बर से धरा का आँचल लहराता है...लहलहाता है...।। पर...... तुम्हारी यादें जब गिरती है...मेरी पलकों से मेरा बदन भीग जाता है...बिन बारिश के मन तड़प उठता है...आसमानी गर्जना सा तुम्हारी यादें जंगलो के अमरबेल सी... बढ़ती ही जा रही है...।। पलाश के फूलों सी दहकती ही जा रही है। रात में आहिस्ता//आहिस्ता मेरा मन चलता है। और बंध जाता है...तुम्हारे आलिंगन में तुम आँखे झपकाते हो पलके मलते हो और खो जाते हो मुझमें... फिर हम ढेरों बातें करते है...।। रूठते//मनाते है...तुम बहस भी बहुत करते हो, मेरे देर से आने पर नाराज़ भी हो जाते हो, पर बड़ी जल्दी मान जाते हो...भर लेते हो मुझे अपनी बाहों में...अपने बदन में। लेकिन ये मरी सुबह बहुत जल्दी हो जाती है।। काश इस रात की सुबह न हो...ये सिलसिला यु ही चलता रहे तारों की छांव में... चांद की रौशनी में !!!

सफ़र जिंदगी का....!!!

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उधड़े ख़्वाबो के महल सी जिंदगी कैसे लुढ़क रही है। उम्र के पैमाने पर किसी गुमनाम गली में भटकती अंजान शहर में खुद को तलाशती है। सुबह से शाम...शाम से सुबह उसकी यू ही गुजर रही है। बुनियादी जरूरते पूरी करने में। पर कुछ न कुछ रोज रह ही जाता है। जब वो हिसाब लगाता है। खुद को उधड़े महल में भटकता ही पता है। उसकी प्यास कभी बुझती नहीं भूख मरती नहीं तड़प कभी खत्म होती नहीं हमेशा बढ़ती ही जाती है। ये ऐसा दर्द है जो उम्र के साथ/साथ बढ़ता है और जनाज़े में ही खत्म होता है। क्यूँ हम खुद को मारते है। वो भी इस तरह मरने के बाद तो सब यही धरा रह जाता है। मिट्टी का जिस्म मिट्टी में दफ़्न हो जाता है। और लोगो के जहन से भी हम चार दिन मेहमान बनकर निकल जाते है। हमेशा के लिए, बस गाहे/बगाहे ही याद आते है। हमारा बचपन हमारी जवानी एक यादों का कारवां जो हमारे साथ चलता है। हमारी परछाई बनकर हमारी रूह भी भटकती है। और हम बुनियादी जरूरते पूरी करने में बेबुनियाद से जी रहे है....मर रहे है!!!                 ये अदालतों का दफ़्तर है!!! साहब                 यहाँ जरूरते भी गिरगिट सी रंग बदलती है।।          

अजनबी कौन हो तुम......???

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तुम कौन हो नहीं जान पाई मैं सब जानकर भी लगता है। नहीं जान पाई मैं तुम्हें अजनबी तुम कौन हो बड़े अपने से लगते हो ढेरों बातें करती हूँ। तुमसें पर लगता है। एक अरसे से तुमसें बात नहीं हुई है। पता नहीं ऐसा क्यूँ लगता है तुम खुद में उलझे हुए हो। पर मेरी उलझनें बड़ी बारीकी से सुलझाते हो। तुम दुनियादारी समझते हो मैं पागल कुछ नहीं समझती इसलिए इतनी परेशान हो जाती हूँ। शायद तुम्हारा मेरे जीवन में आना पता नहीं तुम्हारे लिए क्या है। पर मेरे लिए तो मेरा पूरा आसमां/पूरी ज़मी है। तुम आजकल कुछ खोये/खोये से लगते हो पूछती हूँ तो बताते भी नहीं। शायद मुझ पर यकीन नहीं या बताना ही नहीं चाहते, क्या पता क्या है क्या नहीं है। तुम्हारे दिल में तुम्हारा यू बातें छुपाना मेरे रोने का कारण है। कितने जिद्दी हो तुम  सबको खुश करने की फिराक में लगे रहते हो पर हम सबको खुश नहीं कर सकते है। ये बात तुम भी जानते हो पर फिर भी सबको खुश करने में लगे रहते हो। क्यूँ? तुम्हारा यू खोया/खोया रहना  मेरी घुटन का कारण है। मेरी नींदे उजड़ने का भी कारण है। अजनबी कौन हो तुम

इंतज़ार.......!!

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तेरे इंतज़ार में.... हर पल बेचैन मेरा.... तेरी यादों के सहारे.... हर पल कटता मेरा.... पर तू लापरवाह.... खोया रहता है....।। खुद में मेरे बिछोने पर.... कसमसाती तेरी यादें.... मेरी जुल्फों से खेलती तेरी यादें.... मेरे जिस्म के हर पन्ने पर कैसे पसरी रहती है....।। तेरी यादें न भूख है....न प्यास है....।। बस तेरी यादों के सहारे.... ये सुबह है....ये रात है....।। तेरे आने से पहले.... ये सब कहाँ था....।। सिर्फ तन्हाई थी....।। तन्हाई तो अब भी है....।। पर तेरी यादों की खुशबुओं से मेरा जहाँ महकता है....।। अब मैं गुलाब सी खिलती हूँ....।। मोगरे सी मुस्कुराती हूँ....।। पवन सी लहराती हूँ....।। तेरी यादों के सहारे.... जीती हूँ....मरती हूँ....।। तेरी रूह से मेरी रूह का नाता कोई पुराना लगता है....।। यू ही कोई हमनवां.... ....हमप्यारा नहीं लगता है....।। ....नहीं लगता है....!!!

अपने पराये........

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किसे अपना कहे, किसे पराया कहे बेगानों की भीड़ में कुछ अपने होते है। और अपनों की भीड़ में कई बेगानें खुशियों की क़ीमत क्या है। बस एक टुकड़ा अपनापन जो मिलता नहीं अब कही भी दोस्तों की भीड़ में हम दोस्त तलाशते है। गैरों की महफ़िल में हम खुद को तलाशते है। ये हमें क्या हो गया है। हम सबसे मिलते है।  पर खुद से बिछड़ गये है। अपने परायो का उसूल हम भूल गए है। बारिशों का इंतज़ार करते है। पर चिड़िया जैसे रेत में नहाना भूल गए है। मोर जैसे हम नाचते है। और खुद के पैरों को देख मन ही मन रोते भी है। आसमानी फरिश्तों का इंतज़ार करते है। पर ज़मी के रिश्तों से दूरियां बनाते है। ये हमें क्या हो गया है। बेगानों की महफ़िल में अपने तलाशते है। और अपनों की महफ़िल में बेगानें से घूमते है!!!

विश्वास की लौ........

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सुनो..... तुम दर्पण बन जाओ मैं उसमें अपना रूप संवार लेती हूँ। कर लेती हूँ। अपने उलझे बालों में कंघा आंखो में काजल डाल लेती हूँ। अपने माथे पर वो चमकीली बिंदिया भी लगा लेती हूँ। जो तुम लाये थे। उस दिन बड़े चाव से सुनो....... तुम पानी बन जाओ मैं अपनी प्यास बुझा लेती हूँ। तुम शर्बत बन जाओ मैं उसमें शक्कर सी घुल जाती हूँ। तुम मेरे गिलास का पानी बन जाओ मैं तुम्हें अपने होंठो से लगा लेती हूँ। सुनो....... तुम हवा बन जाओ मैं अपनी सांसो के जरिये तुम्हें खुद में समा लेती हूँ। तुम मेरे कमरे का पंखा बन जाओ मैं उस पंखे के नीचे कुछ देर सुस्ता लेती हूँ। तुम मेरी बालकनी में ठंडी ब्यार बन आ जाओ मैं अपने चेहरे पर वो ब्यार महसूस कर लेती हूँ। तुम हवा के साथ रात को मेरी छत पर आ जाना मैं तारों के साथ कुछ पल तुम्हारे साथ बिता लूंगी। सुनो....... तुम बारिश की बूंदे बन जाओ मैं तुम संग नहा लेती हूँ। तुम मेरे आंगन में आ जाओ मैं कुछ देर तुममें कागज़ की किस्तियां चला लेती हूँ। तुम मेरे बगीचे के गुलाब पर ठहर जाना मैं उस गुलाब की खुशबू को खुद मैं कैद कर लूंगी। तुम सावन में रोज बरसना

हिसाब किताब जिंदगी के............

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पलटती है। किताब जब भी जिंदगी की...... तमाम हसरतें बदला लेती है। अपने गुनहगार की, पूछती है। क्या मिल गया हमें दफ़नाकर, कोई जबाब न पाकर वो और सिसक सिसक कर रोती है। पर अब उनकी सुनने वाला कोई नहीं ये सोच उम्र का हिसाब लगा एक ख़मोशी से चुपचाप अश्क़ो की धारा में बहती है। अपने रूह की क़ातिल अपने जिस्म को रेशमी साडी में लपेट जिंदगी को कुर्बान कर जिंदगी की आस में रोती है। अपने रूह को तड़पाने वाली ये कैसी हरजाई है। कोरे कफ़न में कैद कोरे पन्ने रंगने वाली कोरी किताब में बंद हुई है। गैरों को क्या इल्ज़ाम दे ये खुद को मार खुद की क़ातिल हुई है। जमाने का दस्तूर निभाने जमाने से दूर हुई है। अपने वजूद को तलाशने वाली अपने वजूद से जुदा हुई है!!!