ओ मेरे चंदा


        ओ मेरे हमदम , मेरे दोस्त , मेरे हमसफ़र चंदा.....
तुम रोज घटते - बढ़ते क्यों रहते हो
बिल्कुल मेरे मन की तरह ।
तुम न पास आते हो न दूर जाते हो....
बस मुझे ताकते रहते हो । क्यों ?
वो भी ऐसे रातों को दिन में न जाने 
कहाँ  चले जाते हो मुझे छोड़कर ।
मैं तो बस तुम्हें ही ढूढ़ती फिरती हूँ ।
फिर सूरज से पता चलता है ।
तुम रात को आओगे मुझे देखने क्यों ? बोलो
और हर पन्द्रवे दिन तुम कहाँ चले जाते हो ?
मैं तुम्हारी राह ताकते- ताकते यू ही 
खुले आंगन में सो जाती हूँ।
क्या अच्छा लगता है तुम्हे ।
मुझे ऐसे क्यों तड़पाते हो ।
मेरे दोस्त मेरे हमसफ़र चंदा
मुझे यू छोड़ कर न जाया करो
मुझे अच्छा नहीं लगता है ।
तुम्हारा ऐसे जाना ।
जब तुम फिर पन्द्रवे दिन बाद
पुरे होकर आते हो कितने सूंदर लगते हो ।
मैं तो बस तुम पर मुग्ध ही हो जाती हूँ ।
उस दिन मैं तुम्हारे लिये खीर भी बनाती हूँ
पर तुम नहीं खाते मैं ही तुम्हारे हिस्से का भी
खाती हूँ ।
तुम ऐसा क्यों करते हो ?
कुछ तो बोलो मेरे हमसफ़र ,
मेरे चंदा ।
तुम्हारी ये शीतल चाँदनी मुझे बहुत भाती है ।
सच कहती हूँ ।
मैं तो हर पल बस तुम्हे ही सोचती रहती हूँ ।
मेरे हमदम , मेरे हमसफ़र
मेरे चंदा !!!







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