बोझिल मन

बोझिल मन , खुशियां पराई ,
नमक के समुंदर में तैरता मन ,
जैसे सागर की गहराई में कोई प्यासा ,
प्यासा ही मर गया ।
आँखों की दहलीज़ पर अश्कों के मोती ठहरे ,
होठों में दबी सिसकियों की राह ताक रहे है ।
जैसे अमावश्या का चाँद इनका समझौता कराने आयेगा ।
उलझनों का मौसम बेसुध आंगन में टहल रहा है ,
सुखी पवनों का हमराज़ बन रहा है ,
जैसे ये परछाई बन इनका साथ निभाने वाली है ।
इन गहरे रंग की बोतलों से न जाने क्यों बहुत
खुशबू आ रही है ,
इनमें दर्द के छाले भिगोने का मन कर रहा है ।
इस जिस्म की रंगत अब उड़ चुकी ,
इसे इत्र की शीशी से नहलाने का मन कर रहा है ।
बेख़ौफ़ अब उस तराशें हुए पत्थर को चाट कर चाँद
की गहराई में तारों संग टिमटिमाने का मन कर रहा है ।
ये काले बादल अब मेरा हमदर्द है ,
इनके साथ तड़प कर जाऱ - जाऱ रोने का मन कर रहा है ।
अब मुमताज़ की सखी बन कब्र की चादर तले बातें करने
का मन है ।
कब्र में सुकून की नींद पाने का मन है !!!




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