फ़ासला जिंदगी और मौत का

 
  जिन्दगी और मौत का फासला ,
बस इतना एक देह , एक रूह ,
तूफानों ने साहिलों से टकरा ,
न जाने कितने घर उजाड़े ,
और जिन्दगी की धरा में बह ,
न जाने कितने दिल टूटे ,
फिर कुछ मरहम , ये वक़्त खुद के साथ लाया ,
और एक अज़नबी उसके मन को भाया ,
पर अब उम्र की बंदिशें है ।
वक़्त की पाबंदिया है ।
और मर - मर के जीने की कला में माहिर
जिस्म ,
सबको रश्क़ है । उसकी जिन्दगी से ,
पर वो मौत की तलबगार है ।
अब वो आसमां की ख्वाइशमंद ,
चाँद तारों की आशिक़ ,
न जाने कौन सी कस्ती पर सवार
उसकी बाहें ,
मिलने की उम्मीद में जिस्म दफ़न है ।
पर ये क्या हुआ उसकी तड़प लहर सी ,
और धड़कन महुआ के कच्ची कोंपलों
सी नशीली हो गई ,
आज तो उसे देख सूरजमुखी भी
शरमा रही है ।
सूरज को ताना मार रही है ।
आज उसे ये क्या हुआ मन महुआ सा क्यूँ बहका ,
गुलाब सा क्यूँ बिखरा , पलाश सा क्यूँ दहका ,
आज तो गगन की हर बात उसे सच्ची सी लग रही है ,
धरा पर मचलती सी लग रही है ,
खुद हीरा भी खोता सा लग रहा है ।
और सरेआम उसकी चुगली कर खुद को
बचाता सा लग रहा है ।
लगता है । आज शहर में मोतियों की बारिश होगी ,
झीलों सी बाढ़ आयेगी ,
चाँद - तारों की साज़िश होगी ,
और उसके सुकून की बात होगी ।
" कितना प्यारा मंज़र है । ये हर तरफ़ ,
  जिंदगी से रुख़्सत होने की बात होगी "  !!!









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