राधा....कान्हा.....

 
कान्हा ये तेरी आंखे झील सी प्यारी....
मैं उनमें डूबती जा रही मोतियन सी.......
कान्हा ये तेरी बांसुरी की तान........
मुझे लागे शहद की दुकान.......
कान्हा तूने क्यूँ छेड़ी फिर से ये तान.......
मैं तड़प रही बिन पानी जैसे मछरी..........
कान्हा ये तेरी आदत जाती नहीं
बीना-वजह हँसी-ठिठोली की.........
अब मैं क्या-करू कैसे रोकू खुद को ,
बदरी बन बरसने से........
साँझ-सकारे तुझे ही निहारु ,
जैसे चंदा मेरे आँचल........
लाज़ में मोरा चेहरा बादामी हुआ रे.........
अब मैं कहाँ जाऊँ........
क्यूँ छेड़ी तूने ये तान......
लगा सदियों पहले की पहचान.........
मैं तो भूली थी सब ,
अब कैसे जीऊ रे ,
तूने मुझसे बहोत छल किया है। कान्हा........
हमेशा मुझे अकेला किया है........
रुक्मणी ने तो नारी जलन में ,
गर्म दूध ,
मुझे पिलाया था , तूने उसे क्यूँ पिया ,
अब मेरे बदन से भी आग निकाल रही है ।
मोरा गोरा बदन काला हुआ रे ,
तेरे चरणों की धूल माथे से लगा सोती हूँ.......
पर मुझे नींद नहीं आती अब.......
रात काली नागन सी डसती है ।
तेरी प्रीत मुझे बहोत महंगी पड़ रही है। कान्हा.........
न दिन में सुकून , न रात को सुकून........
अब क्या करूँ हरजाई ,
किससे तेरी शिकायत करूँ ,
तूने तो मुझे बावरी बना दिया........
एक दिन तुझसे बदला लूंगी...........
कान्हा......... तू देखना.................
तुझे पीट-पीट , मैं खुद मर जाऊँगी...........
फिर तुझे पता चलेगा.............
फिर तू कितना भी पुकारे , न आऊंगी हरजाई..........
कान्हा ये तेरी राधा हुई बावरी..........
अब तो आजा रे................
अब तो आजा रे................. आ जा........!!!!!





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