राधा कान्हा विरह प्रेम........
क्यूँ जीते जी ये सज़ा दी......
पलकों पे आंसुओ की लड़ी सज़ा दी........
जीने की ख्वाइस पैदा कर , मौत की सज़ा दी.......
गलती बता देते तो , ये तकलीफ़ कम होती........
राधे कान्हा की यादो में डूबी.........
बावरी बन पिघले मोम से हाथ जला बैठी.........
दिये की लौ में कान्हा को देखती नज़रे जला बैठी........
द्वार पर घूँघट काढ़े बैठी है , और हर आते जाते से
कान्हा की पाती पढ़ वाती है ,और उसकी बाट जोह रही है......
पर क़िस्मत का लिखा कौन बदल पाया है........
हाथ की लकीरों को कौन मिटा पाया है..........
कान्हा की तक़दीर में राधे नहीं , और राधे की क़िस्मत में
कान्हा नहीं .........
बैरी ज़माने को कुछ भी रास नहीं ..........
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें