अरुणाई.....कान्हा की राधे से........

 
ये कैसी अरुणाई , ये कैसा बाँकपन ,
हर तरफ तू , हर जगह तू ,
नींदों में मिलन तेरा , जागते में हरण तेरा ,
जागती पलकों का सपना तू , रोती आँखों
का अपना तू........
मेरी जिद्द दुनियां जीतने की , पर कोई अपना
कहने भर को भी नहीं ,
हज़ार ख्वाइशें मन में , पर तन्हा अकेली तन में ,
जिंदगी बंदगी का ठहरा पहर......
इश्क़ सिसकता सच........
पर मौत भी नसीब नहीं.......
बस उलझनें , बेचैनी , तन्हाई रोज़ का सच..........
न आहत का कोई पैमाना ,
न सरकती जिंदगी का कोई पैमाना ,
बस सिलवटों में दम तोड़ती ख्वाइशें ,
कभी तन्हा रोती.......
कभी खुद पर हँसती जिंदगी........
फिर कुछ पल ठहर......कुछ सोच....
खुद की तन्हाइयों से लिपट कर रोती जिंदगी.........
एक उम्र तेरी बीती.....
एक उम्र मेरी बीती.....
सब कुछ पाकर सब खोया तूने.......सब पाकर
सब खोया मैंने भी........
रोज़ पहाड़ सी जिंदगी का रिवाज़-ओ-हक़ अदा
करते है ,
बोझिल मन से कभी हँसते है......
कभी रोते है.......
कभी मुस्कुराते है..........
और जिंदगी की दौड़ पूरी करते है........
बेगाने अपनों के लिए.........जिन्हें अब हमारी जरूरत नहीं......
हम रातो में तकिये के सिरहाने ,
चादर में चादर से सिमटकर ,
आँखों में आंखे डाले चुपचाप रोते है ,
और खुद की बातें खुद से कर ,
ख़यालो की दुनियां का दस्तूर भी निभा जाते है ,
ये जिंदगी मुश्किलों का सफ़र........
ये रात बंदगी का पहाड़........
और महोब्बत संजीदगी का आलम.......
जहाँ न मौत नसीब........
न सुकून नसीब.............
बस लम्हा-लम्हा बैचनी नसीब.......


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