इतना ही सुकून जिंदगी का......


 कितना सुकून होगा , अगर मैं जाम में बर्फ सी तैर जाऊँ.......
कितना प्यार होगा , अगर मैं शरबत में रंग सी घुल जाऊँ......
कितनी तड़प होगी , अगर मैं आग में लकड़ी सी जल जाऊँ.....
कितना प्यारा नसीब होगा , अगर मैं आसमां में चाँद के घर
में रह लू , बूढ़ी माँ संग चरखा कात लू , शीतल चाँदनी में कान्हा संग सम्मोहन के धागे में बंध जाऊँ........
ये धरा पर जो रेत उड़ती है।  न........
आसमां से बदरी के बरसते ही। सब माटी में समा जाते है।
फिर ये सौंधी- सौंधी खुशबू मन बहका ले जाती है ,
कही गुलाब , कही मोगरा सी उड़ती फिरती नज़र आती है।
और फिर शाम के आँगन में सजा ये इंद्रधनुषी रंग हर चेहरे पर
चढ़ चमकता है , मुस्कुराता है।
ये सुकून के किस्से अनेक !!
पर सुकून कही नहीं !!
जन्मते ही रोना ,
फिर सारी जिंदगी दौड़ना ,
तड़पना ,
तिल- तिल पिसना ,
जीने का स्वांग रचना ,
अपनी सारी जिंदगी समझौते तले...
जिम्मेदारिया निभाना ,
और फिर मौत की बाट जोहना...................
खुद से बातें करना ,
और पार्क की किसी खाली बेंच पर बैठ अजनबी
चेहरे ताकना।
और कान्हा से अगला जन्म न देने की प्राथना करना.......
बस इतना ही जीवन ,
इतना ही सुकून ,
इतना ही दर्द ,
इतना ही प्यार ,
इतना ही नश्वर संसार ,
इतनी ही कटपुतलीयाँ ,
जिन्हें कान्हा रोज़ नचाता है । अपनी उंगलियों से.....
अपने पोरों से....!!!!!






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