दरिया में बहती सोच.......

 जिंदगी कभी मधुरिम, कभी बोझील.....
न जाने इसके कैसे-कैसे सितम,
लगता है अब संवरे की जिंदगी, अब संवरेगी,
पर नहीं संवरती जिंदगी,
हमें क्यूँ सब कुछ नहीं मिलता, न जाने क्यूँ,
पर क्या हुआ जो कुछ न मिला,
कभी हमें रेत सी फिसलती लगती जिन्दगी
तो कभी सागर में हिचकोले खाती नैया सी लगती,
ये उखड़ी सांसे अब भी जीना चाहती है,
पर ये दुनियावी रीति-रिवाज उसे जीने नहीं देते,
ऐसा लगता हमें कोई कंबल में लपेट मार रहा है,
और अगर शोर हुआ तो लोग पूछेगें तुम्हे क्या हुआ
फिर हम कुछ नहीं बोल सकते है, और हमारी सुनेगा
भी कोई नहीं,
सभी के समझौते अलग-अलग पर सभी इस समझौते
तले घुटते है,
मरते है रोज तिल-तिल, जैसे  सैंडविच में आलू दो
परतों के बीच पड़ा-पड़ा सिसक रहा हो,
मधुरिम जिंदगी की आस में हम ओस की बूंदों से
जम गये है,
सड़को पर रेत से बिखर गये है !!!




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