खवाइश.................

 तेरी खवाइश....मेरी चाहत.......
दोनों मिला अपना आशियाना सजाते है........
चाँद-सितारों से छत.....रंगीन मोतियों से
दीवारे सजाते है......
तेरी-मेरी बातों के कुल्हड़ से......सोंधी सी जो
खुशबू उड़ी है उससे अपने चेहरे सजाते है......
तेरी तकरार मेरी तकरार से चूल्हा जला.... उस
पर चाय बना चुस्कियां लेते है.....और ग़ैरों को
जलाते है........
शाम ढले जब हमारे आंगन चांदनी उतरेगी.....
हम-तुम आँखों-आँखों में छइ-छप खेलेंगे......
और अपना आशियाना महकायेगें......
चुलबुली शरारतों से अपना बिछोना
सजायेंगे......ग़ैरों को जलायेएँगे.......
और रात के आँगन में चुपके से एक-दूसरे की बाँहो
में सो जाएंगे.....
ये कैसी खवाइश है.....जो दस्तक दे रही है......
उड़ते बुलबुले सी हमें बहका रही है.....
और हम-तुम नील गगन में उड़ रहे है.....
महकती फिजाओं संग फिर रहे है.....
न तुझे कुछ होश है.....न मुझे कुछ होश है.....
हमें तो बस एक-दूसरे में होश है.....
एक-दूसरे में जोश है....होश है......!!!








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