राधा कान्हा प्रेम रस.......

"निशब्द" हो जाती हूँ, कान्हा तेरी मुरली की तान सुन.......
चाँद-तारों की मुझे जरूरत नहीं,
मुझे तो बस तेरे प्यार की बेसुमार दौलत चाहिए,
दिल भरता नहीं तेरी तस्वीर से, मन करता है
चुरा लू किस्मत की लकीर से,
तेरी महोब्बत में सांवरे मेरा रूप निखरा है,
मेरी हथेली में सांवरे तेरा रूप सजा है,
झूम लू तेरी बाँहो में जो तू एक बार आ जाये,
जी लू हजार बार जो तू एक बार आ जाये,
मेरे होंठो से तेरी ही महक आती है,
मेरे होंठो से तेरे ही सुर निकलते है,
क्या बताऊँ......सखी रे........
सजन संग कैसे कटी मेरी रात.......
कैसे उलझी लट कैसे उलझी अंखिया.......
कैसे कहूँ मन की बतियां.......
कुछ मैं उलझी कुछ श्याम.......
बैरी ने खोल दीनी अँगिया........
तन खोला......
मन खोला......
अंग-अंग खोल समाय गयो श्याम......
कैसे कहूँ मन की बतिया सखी रे........
भिज गयी......
भिजाय दइ.....
भरी रस की पिचकारी......
सब लूट गयो बैरी......
कैसे कहूँ......
का से कहूँ मन की बतियां सखी रे........
कैसे कहूँ.......
मंदिर मिलन मास लगता है। प्रिय खास,
नैन में समा के पीर क्यूँ जागते हो,
कारे कजरारे नैन घुल जाये सगरों चैन,
मुग्ध-मुग्ध तकत रहा पल-पल उसके नैन,
शोख घुंघराली लट उलझ-उलझ जाये मन,
लिपट-लिपट जाए तन वश में न आज मन,
पिया एसो समाय गयो रे मन में......
मैं तन-मन की सुध- बुध गवाय बैठी......
हर आहट पे लगे वो आय गयो रे......
आय गयो रे.........










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