आखरी गिरह........

बदलती ऋतुओं में बसंती फाग से तुम,
और मैं उड़ती रंगों भरी गुलाल सी,
तुम्हारे कुर्ते के झटकन से उड़ती गुलाल,
में मैं तुम्हारे आँखों के तारों से उलझ गई,
मुझे मेरा कुछ पता न चला,
बस तुम्हारे सांसो की डोर से खिंचती चली गई।
तुम मेरी ऊँगली थामे मेरे माथे की बिन्दिया
से जा मिले, मेरे पैरों के नूपुर में जा बैठे।
मेरी सांसो से ये कैसा सौदा किया है। तुमने
ये कमबख़्त मुझे छोड़कर नहीं जा रही है।
मेरे गले में घुटती रहती है।
अब गंगा मईया से किया मेरे वादे का क्या होगा,
कि मैं जल्दी आऊंगी आपके आलिंगन में बंधने।
मेरे हाथों की अँजुरी में तुम्हारा प्यार, तुम्हारी ख्वाइशें
आँखों के कतरो में बहता ये अपनापन।
कैसे करूँ तुमसे कोई गिला, कोई शिकवा
बस हाथों की लकीरों में तुम्हे तलाशा करती हूँ,
जो मिला जितना मिला उसमें सबर करती हूँ।
बहुतों के नसीब में ये भी नहीं होता,
ये सोच सोच कर खुद को तस्सली दिया करती हूँ !!!









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