सफ़र जिंदगी का...........

बदलते रिश्ते......
रोते हम.......
खुद को कोसते रह जाते है।
क्यूँ किया किसी पे यक़ी
ये दुनिया यक़ी के लायक नहीं
ये सोचते रह जाते है।
पर सिवाय जाऱ/जाऱ रोने के
कुछ नहीं कर सकते है।
गलती हमारी होती है।
तन्हाई के आलम में
हम गैरों को अपना समझ बैठते है।
इस काली/नीली रात में
तकिये का कोना गीला। और
चादर में सिसकियों की सीलन भरते है।
एक पल में जिंदगी अमावश की अंधेरी
रात में बदल जाती है।
हम आकाश का टुकड़ा थामे
छनती रात में खुदा से
मौत की फ़रमाइश करते है।
जो मौत न आये तो
आँखों की सूजन में दफ़्न होते है।
अश्क़ो के घूंट/घूंट में अपना कफ़न
खुद सिते है। पर किसी से कुछ न कहते है।
थमी/थमी सी सांसो में
बर्फ के पहाड़ में सांसो के घूंट भरते है।
अपने ताजा जिस्म को
कभी मिट्टी में दफ़्न करते है।
तो कभी सिलगती लकड़ियों संग जलाते है।
खुद को कोसते रह जाते है। क्यूँ किया किसी पे यकीं
ये सोच सोच अपनी ही रूह से बदला लेते है।
हर दर्द का मरहम होता है।
पर इस दर्द का कोई मरहम नहीं
बस अश्क़ो की धारा में तिल/तिल मरते है।
अपनी तमन्नाओं का गला घोंट
रिश्वत की जिंदगी में रिवाज़ों का हक अदा करते है।
पलकों पर टिकी ओस सरीखी बूंदों को
जिस्म की आग में सुखाते है।
बदलते रिश्ते.....
रोते हम......
वक़्त के सांचे में तड़प/तड़प
अपनी जिंदगी बिताने की कोशिस करते है
जिंदगी बैरन हर मौसम में पतझड़ सी उड़ती है।
चाहे न चाहे कोई फर्क नहीं पड़ता है।
बस हर पल ये बदल जाती है।
हर मोड़ पर खुद ब खुद मुड़ जाती है।
हर नुक्कड़ खुद पर खुद जैसा एक
शक्श पाती है।
ये कैसी जिंदगी है। जितना सहते है।
उतना तड़पाती है।
जितना भागते है। उतना पीछे पड़ती है।



















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