हिसाब किताब जिंदगी के............

पलटती है। किताब जब भी
जिंदगी की......
तमाम हसरतें बदला लेती है।
अपने गुनहगार की,
पूछती है। क्या मिल गया
हमें दफ़नाकर,
कोई जबाब न पाकर
वो और सिसक सिसक कर रोती है।
पर अब उनकी सुनने वाला कोई नहीं
ये सोच उम्र का हिसाब लगा
एक ख़मोशी से
चुपचाप अश्क़ो की धारा में बहती है।
अपने रूह की क़ातिल
अपने जिस्म को रेशमी साडी में लपेट
जिंदगी को कुर्बान कर
जिंदगी की आस में रोती है।
अपने रूह को तड़पाने वाली
ये कैसी हरजाई है।
कोरे कफ़न में कैद
कोरे पन्ने रंगने वाली
कोरी किताब में बंद हुई है।
गैरों को क्या इल्ज़ाम दे
ये खुद को मार
खुद की क़ातिल हुई है।
जमाने का दस्तूर निभाने
जमाने से दूर हुई है।
अपने वजूद को तलाशने वाली
अपने वजूद से जुदा हुई है!!!



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