अपने पराये........

किसे अपना कहे, किसे पराया कहे
बेगानों की भीड़ में कुछ अपने होते है।
और अपनों की भीड़ में कई बेगानें
खुशियों की क़ीमत क्या है।
बस एक टुकड़ा अपनापन
जो मिलता नहीं अब कही भी
दोस्तों की भीड़ में हम दोस्त तलाशते है।
गैरों की महफ़िल में हम खुद को तलाशते है।
ये हमें क्या हो गया है।
हम सबसे मिलते है। 
पर खुद से बिछड़ गये है।
अपने परायो का उसूल हम भूल गए है।
बारिशों का इंतज़ार करते है।
पर चिड़िया जैसे रेत में नहाना भूल गए है।
मोर जैसे हम नाचते है।
और खुद के पैरों को देख मन ही मन रोते भी है।
आसमानी फरिश्तों का इंतज़ार करते है।
पर ज़मी के रिश्तों से दूरियां बनाते है।
ये हमें क्या हो गया है।
बेगानों की महफ़िल में अपने तलाशते है।
और अपनों की महफ़िल में बेगानें से घूमते है!!!

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