जिस्म और रूह क्या फर्क दोनों में......

जिस्म और रूह......
क्या फर्क दोनों में
जिस्म में ही तो रूह बस्ती है।
पर सच ये रूह एक ऐसा सच 
जो कभी नहीं मरता
जिस्म माटी का पुतला 
मिल जाता है एक दिन माटी में......!!!

मेरी निशा घुलती है आँसुओ में.....
ढलती है तकिये का कोना गिला करते हुए
कब सुबह होती है यादों में पता नहीं
पर सुबह खुद को सम्हाल फिर खड़ी हो जाती हूँ.....!!!

तुम कितनी आसानी से सब बोल खुद को मुक्त कर लेते हो.....
नहीं सोचते एक बार भी मेरे बारे में
तुम्हे सब की परवाह पर मेरी नहीं
क्यूँ???
तुम थोड़े से लापरवाह हो
भोग, आनंद में लिप्त हो
तुम्हे यही जीवन का सच लगता है।
ये छणिक सुख तुम्हें बहुत भाता है।
न जाने क्यूँ???
तुम गैरों की खतिर अपनों को भूल गए
जिस्म के सुनहरे रंग में अपनी परछाई भूल गए
चंचल सुख में समृद्धि का सुख भूल गए
तुम किसी के पाश में मेरे हृदय का पाश भूल गए
न जाने क्यूँ???

तुम मेरे अश्क़ो की धारा में अविरल बहते हो......
मेरे जिस्म में सांसे बन रहते हो
मेरी उषा में तुम, निशा में तुम
मेरे सत्य में, असत्य में भी तुम
मेरे जिस्म की बाती में लौ बन जलते हो
मेरी यादों में कोहरे के बादल बन ठहर गये हो
मेरी नजरें धुंधली पड़ गयी है।
बस तुम्हारी यादों के सहारे रास्ता नापती हूँ
और अपना सफ़र पूरा करती हूँ.....!!!













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