सफ़र जिंदगी का....!!!

उधड़े ख़्वाबो के महल सी जिंदगी
कैसे लुढ़क रही है। उम्र के पैमाने पर
किसी गुमनाम गली में भटकती
अंजान शहर में खुद को तलाशती है।
सुबह से शाम...शाम से सुबह
उसकी यू ही गुजर रही है।
बुनियादी जरूरते पूरी करने में।
पर कुछ न कुछ रोज रह ही जाता है।
जब वो हिसाब लगाता है।
खुद को उधड़े महल में भटकता ही पता है।
उसकी प्यास कभी बुझती नहीं
भूख मरती नहीं
तड़प कभी खत्म होती नहीं
हमेशा बढ़ती ही जाती है।
ये ऐसा दर्द है जो उम्र के साथ/साथ बढ़ता है
और जनाज़े में ही खत्म होता है।
क्यूँ हम खुद को मारते है।
वो भी इस तरह
मरने के बाद तो सब यही धरा रह जाता है।
मिट्टी का जिस्म मिट्टी में दफ़्न हो जाता है।
और लोगो के जहन से भी हम
चार दिन मेहमान बनकर निकल जाते है।
हमेशा के लिए, बस गाहे/बगाहे ही याद आते है।
हमारा बचपन हमारी जवानी एक यादों का कारवां
जो हमारे साथ चलता है। हमारी परछाई बनकर
हमारी रूह भी भटकती है।
और हम बुनियादी जरूरते पूरी करने में बेबुनियाद से
जी रहे है....मर रहे है!!!
                ये अदालतों का दफ़्तर है!!! साहब
                यहाँ जरूरते भी गिरगिट सी रंग बदलती है।।
                क़ातिल खुले आम घूमते है।।
                दुनिया की भीड़ में हम दुनिया के होते है...।।
                और अकेले में छिप कर रोते है....!!!
               

               
               












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