पलकों से गिरती यादें.......

बरखा की बूंदे जब गिरती है...अम्बर से
धरा का आँचल लहराता है...लहलहाता है...।।
पर......
तुम्हारी यादें जब गिरती है...मेरी पलकों से
मेरा बदन भीग जाता है...बिन बारिश के
मन तड़प उठता है...आसमानी गर्जना सा
तुम्हारी यादें जंगलो के अमरबेल सी...
बढ़ती ही जा रही है...।।
पलाश के फूलों सी दहकती ही जा रही है।
रात में आहिस्ता//आहिस्ता मेरा मन चलता है।
और बंध जाता है...तुम्हारे आलिंगन में
तुम आँखे झपकाते हो पलके मलते हो
और खो जाते हो मुझमें... फिर हम ढेरों बातें
करते है...।।
रूठते//मनाते है...तुम बहस भी बहुत करते हो,
मेरे देर से आने पर नाराज़ भी हो जाते हो,
पर बड़ी जल्दी मान जाते हो...भर लेते हो मुझे
अपनी बाहों में...अपने बदन में।
लेकिन ये मरी सुबह बहुत जल्दी हो जाती है।।
काश इस रात की सुबह न हो...ये सिलसिला
यु ही चलता रहे तारों की छांव में...
चांद की रौशनी में !!!













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