अब मैं तुम्हें भूलना चाहती हूँ.....???
मेरी जिंदगी के रुपहले पर्दे पर
तुम विराजमान क्यूँ हो गए हो?
अब मैं तुम्हें भूलना चाहती हूँ।
तुम्हारी आँखों में.......
ये जो लाल कसीदाकारी है।
इसमे दर्द की ध्वनि गूंजती सी लगती है।
जैसे कोई नन्हा बालक गुस्से में चिल्लाता,
मधुर स्वर में गूंज रहा हो।
तुम मेंड़ों पर घास की पत्तियां बटोरना चाहते हो।
पर हवा की सरसराहट सुन भाग जाते हो।
तुम्हारी आत्मा में स्वरलहरी गूंजती है।
पर तुम उसे बदन में दफ़नाते चलते हो।
तुममें वृक्षों सी सहजता है।
पर तुम दिमाग की सुन....
दिल को निट्ठला समझ फुटपात पर फेंक देते हो।
तुम सूखे दरख्तों में भी फूल खिलाने की ताकत रखते हो।
पर रात का जुगनू बन अपनी ताकत से खिलवाड़ करते हो।
तुम आसमां के चाँद में....
वायलिन बजाना तो चाहते हो पर,
उस चाँद की शीतलता से कांपते हो।
तुम सौरमंडल की आभा से चमकते हो।
पर तारों की निकटता में खुद से छल भी करते हो।
तुम अंधरे को चीर सुबह तो लाते हो।
पर खुद अँधेरे में जकड़े रहते हो।
सुनों........
इसलिए अब मैं तुम्हें भूलना चाहती हूँ।
तुम्हारी नजदीकियों में मेरी आह निकलती है।
तुम मेरे ख़्वाबो में भी मत आया करो,
मुझे मेरा तकिया रोज सुबह गीला मिलता है।
आँखे सूजी मिलती है....।
तुम मुझे जब से मिले हो रुला रहे हो,
पता नही किस जन्म का बदला ले रहे हो।
खुद भटके हुए हो अब मुझे भी भटका रहे हो।
रातो को रुलाते हो दिन में सांत्वना देने पहुँच जाते हो।
जादू की छड़ी किस खुबसूरती से चलाते हो।
मुझे मारने की साजिश रच जिन्दा रखते हो।
मुझमें तल्लीनता से खो....
मुझसे बिछड़ गये हो।
मेरी रूह में डेरा डाल....
मेरे जिस्म से अलग हो गए हो।
सुनों....
इसलिए अब मैं तुम्हें भूलना चाहती हूँ....
हमेशा-हमेशा के लिए....!!!!
तुम विराजमान क्यूँ हो गए हो?
अब मैं तुम्हें भूलना चाहती हूँ।
तुम्हारी आँखों में.......
ये जो लाल कसीदाकारी है।
इसमे दर्द की ध्वनि गूंजती सी लगती है।
जैसे कोई नन्हा बालक गुस्से में चिल्लाता,
मधुर स्वर में गूंज रहा हो।
तुम मेंड़ों पर घास की पत्तियां बटोरना चाहते हो।
पर हवा की सरसराहट सुन भाग जाते हो।
तुम्हारी आत्मा में स्वरलहरी गूंजती है।
पर तुम उसे बदन में दफ़नाते चलते हो।
तुममें वृक्षों सी सहजता है।
पर तुम दिमाग की सुन....
दिल को निट्ठला समझ फुटपात पर फेंक देते हो।
तुम सूखे दरख्तों में भी फूल खिलाने की ताकत रखते हो।
पर रात का जुगनू बन अपनी ताकत से खिलवाड़ करते हो।
तुम आसमां के चाँद में....
वायलिन बजाना तो चाहते हो पर,
उस चाँद की शीतलता से कांपते हो।
तुम सौरमंडल की आभा से चमकते हो।
पर तारों की निकटता में खुद से छल भी करते हो।
तुम अंधरे को चीर सुबह तो लाते हो।
पर खुद अँधेरे में जकड़े रहते हो।
सुनों........
इसलिए अब मैं तुम्हें भूलना चाहती हूँ।
तुम्हारी नजदीकियों में मेरी आह निकलती है।
तुम मेरे ख़्वाबो में भी मत आया करो,
मुझे मेरा तकिया रोज सुबह गीला मिलता है।
आँखे सूजी मिलती है....।
तुम मुझे जब से मिले हो रुला रहे हो,
पता नही किस जन्म का बदला ले रहे हो।
खुद भटके हुए हो अब मुझे भी भटका रहे हो।
रातो को रुलाते हो दिन में सांत्वना देने पहुँच जाते हो।
जादू की छड़ी किस खुबसूरती से चलाते हो।
मुझे मारने की साजिश रच जिन्दा रखते हो।
मुझमें तल्लीनता से खो....
मुझसे बिछड़ गये हो।
मेरी रूह में डेरा डाल....
मेरे जिस्म से अलग हो गए हो।
सुनों....
इसलिए अब मैं तुम्हें भूलना चाहती हूँ....
हमेशा-हमेशा के लिए....!!!!
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 14 अगस्त 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंउम्दा रचना!
जवाब देंहटाएंभावों का अद्वितीय प्रसारण,
न जाने कौन से आभामंडल के साये में है व्यक्तित्व जिससे अलग होने का आग्रह भर है।
अप्रतिम रचना ।
आपका तहे दिल से धन्यवाद कुसुम जी।
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत धन्यवाद अनुराधा जी।
हटाएंजिन्हें हम भूलना चाहें वो अक्सर याद आते हैं ... यही तो एक विडम्बना है .।. अच्छी रचना है ...
जवाब देंहटाएंसही बात है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
हटाएंअनुपम रचना
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना है
जवाब देंहटाएंबहोत बहोत धन्यवाद
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