आजकल... कहाँ रहते हो.....???

आजकल कहाँ रहते हो...
आंखे मूंद सब पर भरोषा क्यूँ कर लेते हो...
तुम्हें न कोई समझ पाया है न समझ पायेगा...
क्योंकी तुम सरल नहीं हो...।
जिंदगी की भीड़ में कभी नीम तो कभी शहद हो...
समझौते भी करते हो, बिना समझौते के...
हर किरदार में ढलते हो...
हर आकार-प्रकार में संवरते हो...
पर माथे पर आई लकीरें कहाँ मिटा पाते हो...
दिल को छूने वाली श्यारियाँ भी लिखते हो...
राजनीति भी खूब जानते-समझतें हो...
हर उत्तर में बहस बहुत करते हो...
पर प्रश्न सोच-समझ कर करते हो...
खुद में उलझे हो...
पर उलझनों को स्वीकार नहीं करते...
रगो में खून दौड़ा विरोध प्रदर्शित करते हो...
कंटीली झड़ियों में अटक जिस्म छलनी करते हो...
और हँस कर सबको भ्रमित भी करते करते हो...
तुम्हें कौन समझ पाया है...।
न कोई समझा है, न समझ पायेगा...।
तुम कमलगट्टे से हो...
तो कभी गुलाब पर पड़ी ओस की बूंद से...
तो कभी कंटीली झाड़ियों पर लगे बेर से...
तुम किसी के हो नहीं पाते...
कोई तुम्हारा हो नहीं पता...
जीवन नैया को यु ही लहरों पर चलाते हो...
एक मोती की आस में...
सागर को हथेली पर लिए बैठे हो...
आँखों में हजार सपने...
होठो पर मुस्कान लिए बैठे हो...
माथे पर आई पसीने की बूंदों को...
रुमाल में छीपाये बैठे हो...
वक्त और हालात को...
जिस्म में छीपाये बैठे हो...
जिंदगी को जीत...
जिंदगी हार बैठे हो...हार बैठे हो....!!!











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