बहुरूपये सी जिन्दगी......!!!

बहुरूपये सी जिंदगी
आज को परतों में उधेड़
कल को छिलने की 
साजिश करती नजर आती है।

आत्मा की चीत्कार को
जबरन तन की भेंट चढ़ा 
शांत करते है।

जिंदगी को स्वादिष्ट
बनाने के चक्कर में
नीम का निबोला सा कर लेते है।

तन को कोमलता से सजा
काँटों की शैया पर सुलाते है।

मर्मस्पर्शी स्थितियों में
खुद को खुद के द्वारा छल
उपहास का केंद्र बन जाते है।

धर्म-निष्ठा आड़े आये तो
अपनी संवेदना बदल लेते है।
बड़ी सहजता से....

इसे नियति का खेल कहे
या कुछ और....
जरूरत पड़े तो हम अपनी
प्राणवायु भी बेच आते है।
बिना मोल-भाव....

आदर्शों की बात करते है।
पर अपना आत्मविश्वास भी
खो बैठे है,
इस जीवन की आपा-धापी में।

भरोषा अब समय का रहा नहीं
रंगमंच की कठपुतलियां
बन नाचते फिरते है।

बारिश की उम्मीद में
बंजर ज़मी पर रात बीता
लहलहाते फसल की
सुबह का इंतजार करते है।

अपने स्वर को कंठ में मार
सुरीला होने का उद्धघोष करते है।

अंगौछा बांध उत्तेजना में बहते है।
आवश्यकता पड़े तो....
खुद का घाव  खुद नोंच लेते है।

कोयल सी वाणी चाहिए,
बाज़ सा हौसला,
पर भेड़िये की खाल,
ओढ़े बैठे है।

सब कर्मो का खेल सा लगता है।
हर इंसा यहाँ प्याज की परतों सा
उधड़ता लगता है!!!









टिप्पणियाँ


  1. सब कर्मो का खेल सा लगता है।
    हर इंसा यहाँ प्याज की परतों सा
    उधड़ता लगता है!!!
    बेहद खूबसूरत रचना

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहद मर्मस्पर्शी रचना। बधाई!!

    जवाब देंहटाएं

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