बहता दर्द पहाड़ो का........!!

दर्द है जो अब तक रिस रहा है,
जख़्म होता तो कब का गया होता।

पहाड़ो का दर्द है,
बंजर जमीं में दफ़्न हो रहा है।

पथरीली राहो की चोट है,
जो रक्त बह रहा है।

जिन्दगी का अनुभव है,
जो धीरे-धीरे थिरक रहा है।

लबों का शिकवा है,
जो अंजान राहों पर गिर रहा है।

रात सो रही है,
ख़्वाब गुल्लक फोड़ फैल रहा है।

वक्त के पायदान पे वक्त फिसल रहा है।
काली रातो का उजला सच बह रहा है।

जिस्मों के टांके सांसो में कांप रहे है,
ख्यालातों में भी दर्द रो रहे है।

आसमां से गिरती चान्दनी में,
जख़्मी दिल क्या गा रहा है।

शायद मधुर धुंन में,
कोई पुराना राग अलाप रहा है।

पहाड़ो का उजला संगीत,
बेदाग बह रहा है।

चमकीला झरना,
ज़मी की प्यास बुझा निर्मल हो रहा,
पावन हो रहा है!!!












टिप्पणियाँ

  1. पहाड़ सांस ले रहे हों जैसे ...
    कल्पना की अच्छी उड़ान ... सुन्दर रचना ....

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