चलो फिर से अजनबी बन जाते है......!!!

आख़िर क्यूँ चाहू मैं तुम्हे,
कौन लगते हो तुम मेरे? शायद कोई नहीं
इसलिए अब कुछ भी पूछना छोड़ दिया है।
इंतज़ार भी नहीं करती तुम्हारा।
अब तुम भी बार-बार लौटा मत करों।
मुझे तुम्हारे बिना जीने की आदत हो गई है।
तुम्हें रोज थोड़ा-थोड़ा भूलने की कोशिश कर रही हूँ,
जल्द ही पूरा भूल जाऊंगी।
न जाने कैसे समीप आ गई थी तुम्हारे,
अपनी इस मूर्खता के लिए रोज खुद को दोषी ठहराती हूँ।
तुम और मैं बिल्कुल अलग थे, अलग है।
तुम हकीक़त में भी ख़यालो के साथ जीते हो।
मैं ख़यालो में भी हकीक़त के साथ जीती हूँ।
मैं आँसुओ में डूबकर भी हँसती हूँ।
और तुम हँसकर भी हँसना नहीं जानते हो।
कैसे निभाऊं तुम्हें? अब और निभाया नहीं जा रहा।
तुम्हारी लापरवाहियां बरदास्त नहीं हो रही है।
चलो फिर से अजनबी बन जाते है।
तुम मुझे भूल जाओ, मैं तुम्हें भूल जाती हूँ।
जो शरारते की थी, उसे जीने का माध्यम बना लुंगी।
तुम मेरी चिंता मत करना।
जीवन की कसौटी पर खरी उतरूंगी।
अपनी राह के कांटे खुद बुहार लुंगी।
किसी और को अपने दिल में जगह न दूँगी।
तुम्हारे पास भी न आऊंगी।
चाँद की ख्वाइश नहीं, पैरों में पत्थर बांध लुंगी।
अपनी मंजिल खुद तालशुगीं गैरों की अब जरूरत नहीं।
सपनों को भूमि में दबा पेड़ बन जाऊंगी।
अपने डर को संमुन्दर में बहा, निश्चिन्त हो 
जग का सामना कर लुंगी।
तुम मुझे भूल जाओ, मैं तुम्हें भूल जाती हूँ।
चलो फिर से अजनबी बन जाते है। 
अजनबी बन जाते है!!









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