काश एक पीर मेरी भी तुम समझ पाते.........!!!

एक पीर मेरी भी
काश तुम समझ पाते।
मेरे स्वर का कंपन
महसूस कर पाते।
आँखों से गिरती पीड़ा को
अपने कांधो का सहारा दे पाते।
मेरे बिखरे केशों को
अपनी हथेली से थोड़ा संवार देते।
तो मैं काँटों बीच भी
थोड़ा मुस्कुरा लेती।
मुठ्ठी भर खुशियों को
अपने अधरों में छिपा लेती।
भाव तुम्हारे चहरे के
पलकों पर सजा लेती।
सुगंधित ब्यार अहसास की
बांध लेती हृदय के डोर से।
गाती ऋतुओं की कजरी।
फागुन सा फूलों के रस में नहा लेती।
नीरस पतझड़ में भी
हरसिंगार के फूलों सा झड़ती।
बगिया महकाती।
नव वसंत ले आती।
मन हर्षाती।
इंद्रधनुषी छठा बन
इठलाती।
मृदुल श्रृंगार कर
नियति के काँटों में भी,
गुलाब बन रह लेती।
शीत की ओस में भी
गुनगुनी धूप का,
अहसास कर लेती।
काश एक पीर
मेरी भी तुम समझते।
तो मैं अश्क़ो के संमुन्दर में भी
कुछ ख़्वाब बटोर,
जीवन जी लेती।
जीवन ली लेती!!!









 



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