मिथ्या आरोप

जख़्मी दिल का सुराग़
अब भर नहीं रहा।
वो बारीक़ किस्से
शूल से चुभ रहे है।
अपलक देखे सपने
स्वर्ग सिधार गये।
बर्बाद आदमी के मातम पर
जग हँस रहा है।
कुटिल मुस्कान में
साफ़ शब्दो का प्रयोग कर
दोहरे अर्थो वाले
चुभती बातें कह रहा है।
रद्दी के टोकरे में
नजर गड़ाए बैठा आदमी
मिथ्या आरोप से
छलनी हो रहा है।
दुखती रग का लहू
श्वेत हो रहा है।
अपनी कुटिया में बैठा
जिन्दगी को कोस रहा है।
खजूर की चटाई को
नोच रहा है।
आंखे छलछला आई है,
प्रत्यच्छ अपना नसीब देख।
कलेजा मुंह को आ रहा है।
ऐ आदमी ये तेरा
क्या हाल हो रहा है।
क्या गुनाह किया तूने
जो ये जग हँस रहा है!!



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