निष्ठुर समय की निष्ठुर यादें......!!!

आज लिखने बैठी तो शब्द मौन थे।
बरसाती मिट्टी में जैसे पैर धस रहे थे।
गुजरा जमाना याद आ,
आँखों से बह रहा था।
किदवंती कथाओं जैसे छल रहा था।
जंगली यादें.....
अमावश में भटकती नजर आ रही थी।
सघनता से मेरे विचारों को खा रही थी।
तलहटी में छिप वर्षा वन जैसा...
मेरा हाल कर रही थी।
निष्ठुर समय की निष्ठुर यादें,
हम सबके जीवन में होती है।
बस कोई भूल जाने का स्वांग रचता है।
और कोई आँखों से बहाता है।
पर भूल कोई नहीं पता है।
क्या इतना आसान होता है,
हर चीज़ से मुँह मोड़ लेना।
सब कहते है...
पुरानी बातें भूल जाओ
पर क्या कोई भूल पाया है। आज तक
इतना आसान होता भूलना,
सब कुछ तो...
न आज ये रामायण होती न महाभारत
सब कब के भूल गए होते!!








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