तुम्हारी दासी...!!!

एक सुकून तुम बुनते हो,
एक सुकून मैं बुनती हूँ।
कितना अंतर है दोनों में।
तुम खुद को स्तम्भ समझते हो,
मैं नींव का पत्थर बन खो जाती हूँ।
तुम्हारा वामा-अंग कहला,
जीवन धुरी तय करती हूँ।
नहीं करती कोई शिकायत,
चुप-चाप सब सह जाती हूँ।
तुम्हारी दासी बन,
तुम्हारा जीवन सँवारती हूँ।
खुद के लिए वक्त नहीं मिलता,
पर पूरे घर को वक्त देती हूँ।
मेरे शौक अब कुछ भी नहीं।
सबकी खुशी में खुशी ढूंढ़ लेती हूँ।
तुम्हारी कमियों को अपनी कमी बता,
सब ढक देती हूँ।
तुम्हारा प्रेम अब गुजरे वक्त की कहानी लगता है।
मेरा प्रेम घर के आंगन में बस गया।
मेरा हृदय जम गया,
मेरा स्वाभिमान खो गया। लेकिन
तुम्हारा अभिमान अब भी जारी है!!

टिप्पणियाँ

  1. नीलम अग्रवाल जी मेरे पास कोई शब्द नहीं है टिप्पणी करने के लिए बहुत ही प्यारी बहुत ही सुंदर बहुत ही अच्छी कविता लिखी है आपने धन्यवाद आपका

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