समय की धारा...!!!

समय की धारा में बहते-बहते..
देखो हम कहाँ आ गए।

जन्म-मृत्यु की पोशाक पहने..
गहरा अनुभव लिए,
नाउम्मीदी की खाई में धसते जा रहे है।

जरूरतों का गहना पहने..
आँखों में छटपटाहट लिए..
सच्चाई के दुशाले में लिपटे..
खुद को समय की कील चुभा..
उलझनों की आग में,
स्वाहा हो रहे है।

तपती समय की धारा में..
बारिश की बूंदों का स्वांग..
छाती जमा देता है।
मन उजाड़ देता है।
जंगली बेल सा..
मन को जकड़ लेता है।

धरती गगन ओढ़े..
हमें पुचकार रही है।
पर हम खुद को..
समय की भेंट चढ़ा..
देह के पार..
अनिर्णय के शाप में..
खुद को जला चुके!!




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