सुनों तुम ऐसे तो न थे??

सुनो तुम ऐसे तो न थे?
शांत धरती पर चीड़ के पेड़ जैसे...
आसमां में फैली धूप जैसे...
शरीर एक किरदार अनेक है तुम्हारे।
मकई के खेत में उगे सिट्टे जैसे...

सुनो तुम ऐसे तो न थे?
अपनी परिधि में घूमते रेत जैसे...
गहरे पानी में पत्थर जैसे...
तलहटी में उगे निर्जीव फूल जैसे...

कितने बदल गए हो तुम?
तुम्हारी वो हँसी कहाँ खो गई?
तुम्हारी वो शरारते कहाँ खो गई?

मेरी पुस्तक के तुम सजीव चित्रण थे।
मेरी कहानी के तुम अहम किरदार थे।
मेरे विचारों में तुम आत्मा थे।
न जाने कहाँ खो गए तुम?

इस आधी-अधूरी जिन्दगी में,
अब कहाँ ढूँढू तुम्हें?
मेरे इर्द-गिर्द ही हो तुम,
पर अब पहले जैसे नहीं हो तुम,
सुनों तुम ऐसे तो न थे??







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