अधूरी बातें....!!!
अनेक अधूरी बातें मन में है,
पर अब कुछ कहने का मन नहीं।
मेरा विश्वास गगन की कसम खा मर गया।
अलमारी में बंद किताबों में दफ़न हो गया।
संघर्ष की सांसे मुझे एक टक देख रही है,
मेरे सामर्थ्य से चकाचौंध हो रही है।
लफ्ज़ो में बिखरे संवाद,
किताबों की दुनिया मे घुट रहे है।
असमंजस की बारिश में भीग,
आंखों से बरस रहे है।
गुजरते वक्त में,
सब अधूरा छूट रहा है।
मैं सब कुछ भूलती जा रही हूँ,
मेरी मीठी आवाज,
आंखे मीच..
मेरे गले में ही घुट रही है।
न जाने ये कैसी गांठ दर्द की,
मेरे जिस्म में उभर रही है।
सिंदूरी शाम में भी,
मैं अकेली रो रही हूँ।
भारी सांसो में,
चाय का घूंट निगल,
खुद को यादों से बाहर निकाल रही हूँ।
ये कैसी जिन्दगी मैं जी रही हूँ।
गजब का ज्ञान..
बर्फीली हवा से सहारे..
टूटी खिड़की से बाहर फेंक रही हूँ।
मिथ्या आरोप में भी,
सबको मना..
अपनी ज़िंदगी को विराम दे रही हूँ।
अभिव्यक्ति की आजादी नही,
अपनी सांसो को..
जिस्म का लिबास पहना..
किताबघर में कैद हो गई हूँ।
अनेक अधूरी बातें मन मे,
जिस्म की चौखट से..
बाहर धकेल रही हूँ!!!
पर अब कुछ कहने का मन नहीं।
मेरा विश्वास गगन की कसम खा मर गया।
अलमारी में बंद किताबों में दफ़न हो गया।
संघर्ष की सांसे मुझे एक टक देख रही है,
मेरे सामर्थ्य से चकाचौंध हो रही है।
लफ्ज़ो में बिखरे संवाद,
किताबों की दुनिया मे घुट रहे है।
असमंजस की बारिश में भीग,
आंखों से बरस रहे है।
गुजरते वक्त में,
सब अधूरा छूट रहा है।
मैं सब कुछ भूलती जा रही हूँ,
मेरी मीठी आवाज,
आंखे मीच..
मेरे गले में ही घुट रही है।
न जाने ये कैसी गांठ दर्द की,
मेरे जिस्म में उभर रही है।
सिंदूरी शाम में भी,
मैं अकेली रो रही हूँ।
भारी सांसो में,
चाय का घूंट निगल,
खुद को यादों से बाहर निकाल रही हूँ।
ये कैसी जिन्दगी मैं जी रही हूँ।
गजब का ज्ञान..
बर्फीली हवा से सहारे..
टूटी खिड़की से बाहर फेंक रही हूँ।
मिथ्या आरोप में भी,
सबको मना..
अपनी ज़िंदगी को विराम दे रही हूँ।
अभिव्यक्ति की आजादी नही,
अपनी सांसो को..
जिस्म का लिबास पहना..
किताबघर में कैद हो गई हूँ।
अनेक अधूरी बातें मन मे,
जिस्म की चौखट से..
बाहर धकेल रही हूँ!!!
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