चोट...दिल की...

ध्यान हटा फिर चोट लग गई,
जिस्म पर एक ख़रोंच नहीं
दिल से खून बह गया।

झुकी पलकों में,
एक स्वर चीत्कार कर
शांत हो गया।

समझ से परे हर चीज हो गई,
फुरसत के पल
आँसुओ के हवाले हो गई।

दृष्टि देखती रह गई,
गुजरे पल की धुन
कोमल मन आहत कर गई।

छलावा प्रेम का,
गीत विरह के
धुन अपनी खो बैठे।

नजरों का धोखा,
प्राण की सुंदरता खा गया।

अनजाना एहसास
विचित्र सुगंध सा
मन कड़वा कर गया।
मेरे मौन में भर
खुद उड़ गया।

एकाकीपन की शून्यता
मेरा आज सकुंचित कर रही है,
फिर से जीने की आस
मन मे अंगारे जला रही है।





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