संदेह.......


कितना संदेह करते हो तुम मुझ पर
मैं तो दिन भर सूर्य के साथ भटकती हूँ,
दुःख की शाला के फेरे लगाती हूँ,
आंखों से कंकर बिनती हूँ,
एक जरुरी आह भी नहीं निकालती अपनी ज़बान से
फिर भी तुम मुझ पर संदेह करते हो,
बोलो तो भला क्यूँ??

तुम्हारे संदेह का कारण?
कहीं मेरी कटीली आंखे तो नहीं?
मेरे चेहरे पर खिलती कंवल सी पंखुड़िया तो नहीं?
मेरे लहराते केश तो नहीं?
मेरे बदन से आती सौंधी महक तो नहीं?

मैं तो तुम्हारी आज्ञा से
जंगली फूल बन...
तुम्हारा घर संवारती हूँ।
तुम्हारे हर निर्णय को
जानकी बन स्वीकारती हूँ।
तुम धरा से पूछ लो
मैं तो अम्बर का हर कहा
प्रसन्न्ता से मानती हूँ!!



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