खिलौना

खिलौना माटी का
अश्कों की बूंदों से पिघल
अपना तन-मन वजूद सब खो बैठा।

आंख-मिचौली सा जीवन उसका
ग़ैरों के हाथों की कठपुतली बन
दुसरो का मन बहलाता रह गया।

न सुनी न देखी उसकी पीड़ा किसी ने,
बस अपने हिसाब से सबने खेल खेला उससे।

उसके बदन में कील चुभा, कमरे में सजा
सब हँसे मजे ले ले कर।
उससे एक बार न पूछा तू मौन क्यों है।
तू परेशान क्यों है।

बस धरातल पर खड़ा कर
अहसान तले दबाया उसे।

उसकी छवि तो दुर्गा सी थी,
अबला बना खुद के हिसाब से
सबने छला।

वो तो खुद उपहार थी,
तुम क्या उपहार देते उसे।

कुछ सिक्को में मोल लगाते,
जाऱ-जाऱ रुलाया उसे।

क्या शिला दिया प्रेम का
उसके नसीब पर ही तीर चला
अकेला छोड़ा उसे।

वो तो माटी की मूरत थी,
पिघल गई खोखली बातों से।

अब तो ज़मी में दफ़न हो चुकी
कब्र से न उठा उसको।

तेरी जिंदगी से दूर जा रही है,
अब भूल जा उसको।

तेरी जिंदगी के सारे गम ले गई है,
बिन बोले तुझे।

तू क्या प्रेम करेगा
वो तो मर कर खुद को
छोड़ गई है तुझमें!

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