कलम से निकल कागज पर बिखरी कविता

कितनी ऋतु आई कितनी गई
कभी बसंत खिला, कभी गुलाल उड़ा।
कभी गुलमोहर, कभी पलाश खिला।
कभी शरद के गुलाब पर पड़ी ओस ज़मीं
तो कभी अमलतास चटका।
डाल से फिसल कर वर्षा बूंदे
ज्यों ही ज़मीं पर पड़ी
हर तरफ फसल लहराई।
क्या जाने क्या सोच कर हर कविता
कलम से निकल कागज़ पर बिखर गई।
कभी रक्तरंजित हो रोइ तो कभी
निर्मोही बसंत सी हर डाल पर इठलाई।
कभी देवो के चरणों मे पड़ी तो कभी
वीरों के पथ पर चली।
कभी कौतूहल का मृग हुई तो कभी
धतूरे सी मष्तिष्क में बौखलाई।
कभी भौहों में मिली तो कभी
आंखों में बिछड़ी।
कभी कोमल
कभी कठोर
कभी चंचल
लाल-पीले शामियाने बांधे
घुटनों के बल सोई
कभी शीर्षक के साथ तो कभी
बिना शीर्षक शांत हुई!


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