जोड़ लफ्ज़ो का
कई बार मैं तुम बन जाती हूँ, तो कई बार सिर्फ
लफ्ज़ शब्दों का जोड़ होती हूँ।
कई बार टूटी कई बार जुड़ी हूँ।
एक सफ़र की धूल थी,
नए सफ़र पर चल पड़ी हूँ।
देहरी के भीतर
देहरी के बाहर
कदम रख चल पड़ी हूँ।
हर पंक्ति में कुछ नई पक्तियां जोड़
एक रचना लिखी है।
भोर की पहली किरण से
ढलते शाम की लालिमा,
रात्रि पहर तक कि हर बात लिखी है।
कि कैसे पवन ने दौड़कर
फूलों को गले लगाया,
मैदान के उस पार से कैसे
सूरज भाग कर पहाड़ी पर आया,
कैसे शाम ढले चिड़ियाँ घर लौटी,
कि कैसे चाँद ने आसमां पर कब्जा किया।
तारों के जंगल में कैसे ख़्वाब भटके।
हर बात में मन में विश्वास भर
कोरे पन्नें पर फूल सी खिली।।
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