स्त्री तुम पुरुष न बनना...
स्त्री तुम पुरुष न बन पाओगी
अपने प्रिय को भूल दूजा न अपना पाओगी।
तुम अंतर्द्वद्व में फंसी
इतिहास न बदल पाओगी।
भोग से तप तक की तुम्हारी यात्रा
तुम्हारे जीवन का दुर्गम रास्ता
तुम्हें कैसे तय करना है,
ये भी तुम्हारा सबसे करीबी पुरुष तय करता है।
तुम पलाश सी दहक
अमलतास सी पीली पड़ गई हो।
तुम कुसुम सी थी,
नीम की निबौली सी कैसे हो गई।
तुम आंखों का अंजन थी,
जोड़-घटाव में कैसे फंस गई।
तुम राधा सी थी,
मीरा सी थी,
सीता बन मौन क्यों हो गई।
पुरुष तुम्हें सिर्फ भोगता है
और तुम दर्पण में फंस
झांसी की रानी को कैसे भूल गई।
मिथ्या आरोपों को तुम गले क्यों लगाती हो।
अपने प्रणय में जहर क्यों पीती हो।
अपनी खीज को दबाती क्यों हो।
तुम्हें न कोई समझ पाया था
न समझ पायेगा।
तुम सुख-दुख, आंसू-हँसी, संघर्ष-विश्राम,
संयोग-वियोग, जीवन-मरण, यश-अपयश,
से भरी हुई हो।
स्त्री तुम समय की चाल न समझ पाओगी।
ऋतुचक्र में फंस
बस पुरुष को मनाती रहोगी।
वो पुरुष जो तुम्हें सिर्फ भोग-विलास की
वस्तु समझता है।
स्त्री तुम पुरुष से लड़ो मत पर
अपने अधिकार भी तो मत छोड़ो।
तुम पानी हो तो भाप भी बन सकती हो।
और वर्षा कर सरोवर भी भर सकती हो।
स्त्री तुम किसी से कम नहीं।
स्त्री तुम पुरुष न बनना।
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