किताबघर

दुछत्ती की छोटी सी किताबघर
आज उंगलियों के स्पर्श से चकित हो उठी।

धूल की चादर ओढ़े 
मुस्कुरा उठी।

ईंट-पत्थर के मकान में
ये किताबघर कब दुछत्ती पर चढ़ बैठी
पता ही न चला।

कई किताबें अनछुई थी,
सर झुकाए बैठी थी।
पढ़ाकू आंखे जो अब
उन्हें नहीं पहचानती थी।

दो, चार किताबे आज झाड़-पोंछ
नीचे ले आई।
तो शब्दों का झुंड बोल पड़ा
हमारी बेकदरी मत किया करो
हम हुड़दंग नहीं करते
जीवन संवारते है।


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