जलपरी.....

जलपरी....

सुनहरी झील में सोने सी चमकती जलपरी, हर पूनम की रात बलखाती नदी से बाहर निकलती, नवयौवना का रूप धर कर।
बर्फ सी पारदर्शी, संगमरमर की मूरत सी पूरे तट पर बिखरी शंख-सीपियाँ बिनती, और उन शंख-सीपियों संग खूब खेलती वो हर पूनम की हर रात को।
बारिश के दिन आये चाँद नहीं निकला एक पूनम की रात, वो इंतज़ार करती रही चाँद का पर चाँद बादलों में छिप कर बैठा रहा।
वो उफनती नदी से प्रश्न पूछती रही आज चाँद क्यों नहीं निकला?
तो नदी बोली आज बादल का दिन है वो चाँद को आगोश में लिए बैठा है।
इतना सुनते ही जलपरी रुआंसी हो गई और गुस्से में चितकबरी हो गई। उसका सौंदर्य बारिश में बह गया।
वो मछली सी तड़प कर, मछली सी हो गई।
चाँद ये देख दूर गगन में पत्थर हो गया
और सूरज के पीछे छिप गया।

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