विहंगम दृश्य

 मेरा जिस्म पानी पर तैरता एक गांव सा है...।

जिसमें दर्द के चश्में बहते है...।

बिन मौसम नदी में तूफान आता रहता है...।

रिश्तों को सींचते-सींचते...
सब खाली-खाली सा हो गया है...।

फिर भी खारा जलस्तर...
बढ़ता ही जा रहा है...।

प्राकृतिक सौंदर्य तो अब भी कायम है...
पर जिन्दगी की ऊष्मा कहीं पीछे छूट गयी है...।

खुशियों का आश्चर्य मिश्रित अहसास होता रहता है...।
नील गगन में उड़ा सीधा पाताल में फेंक दी जाती हूँ...।

सारी उपलब्धियां गिना...
पाई-पाई की मोहताज कर दी जाती हूँ...।

मगरमच्छो के बीच कमल सा खिल शांत रहने का...
विहंगम दृश्य समझ तारीफ की पात्र बना दी जाती हूँ...।

छल-कपट से घिरी तेज लहरों में...
मुरझाई पवन के झोंके सी तैरती रहती हूँ...।

भारी वर्षा के बढ़ते जलस्तर में...
शांत झील बन डूबते सूरज की लालिमा...
से चमकती रहती हूँ...।

तेज धारा में बह चटटानों से टकरा...
शंख-सीपियों सी बिखर...
रेतीले तट की शोभा बढ़ाती रहती हूँ...।

वजूद की तलाश में...
रोज जीती जा रही हूँ...
मुस्कुराती जा रही हूँ...!!!







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