मैं और मेरी कविताएँ
या कविताएँ मुझमें बस्ती है।
जो भी हो, पर है ये बिल्कुल
अग्नि से निकलती लपटों की तरह,
मेघदूतों की तरह, और कभी-कभी
बंजर तपती जमीं की तरह।
कविताओं की आँखो में अक्सर
नमी भरी रहती है।
घुटन, और सीलन भरी रहती है।
ये क्यों भरी रहती है पता नहीं।
लेकिन धुंए से उसकी आँखें लाल
और गले में खराश रहती है।
स्याह आकाश, धरा पर टिमटिमाटी बत्तियां
काले बादलों बीच झांकता चाँद
बारीक बूंदे, हवा से टकरा जब पहुंची मेरे आंगन
अनमनी नींद ठंडी हवा के झोंके से खुल गई।
कुछ सुकून कुछ तड़प के साथ मैं खिड़की के पास आ बैठ गई।
अपनी कविताओं में तुम संग
तुममें और मुझमें एक ही अंतर है
तुम खुले आकाश
मैं धरा पर सिमटी रेत सी
उड़ती रहती हूँ
तुम्हारे ही विस्तृत क्षेत्र में
पवन के झोंके संग
धूल भरी आंधी सी।
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