स्त्री

 


ये कैसा दर्द है जो कभी मिटता ही नहीं,

कभी रूह तो कभी जिस्म में पलता रहता है।


हर दर्द में आंखे गीली

गला रुंध जाता है।

जैसे धूप में आई पसीने की बूंदे।

तन-मन सब खारा करती है।


दर्द का रंग भी कितना जिद्दी होता है

कितना भी समझाओ खुद को

पर टप-टप आखों से गिरता ही रहता है।


दर्द हमेशा झुंड में आ घेर लेता है।

जैसे इस जन्म के साथ-साथ पिछले जन्म का

हिसाब भी चुकता कर रहा है कोई।


दर्द थकान के हवाले कर 

उम्मीद को खाई में धकेल

धूप में खड़ा कर परीक्षा लेता है।


दर्द कैसा भी हो

आंखों के रास्ते बाहर आ फैल ही जाता है।

आत्मा की चीत्कार का स्वर

गूंज ही जाता है।

मन मे अमावश

तन में रोग लग ही जाता है।


स्लेटी आसमां को ताकते

जमीं को निहारते

फिसलते वक्त को पकड़ते

सुबह से निकल शाम में पहुंच ही जाते है।

रात में आंखों को 

रोने के नियम-कायदे सीखा

जीवन में लगी आग

बुझा ही लेते है।


दर्द खुशियों की कब्रगाह

उम्मीदों की उलझी गुत्थी

उत्साह की दलीलें

मायूसी के पसीने

हर बात का रोना।

आश्चर्य का मख़ौल

जैसे शांत झील में कोई पत्थर मार

किसी को चोट पहुंचा गहरी नींद से उठा देता है।

दहाड़े मार-मार रोने के लिए।

नसीब को कोसने के लिए।


दर्द कैसा भी हो

शरीर पीला

रक्त श्वेत हो ही जाता है।

हो ही जाता है।

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