कफ़न ( मौत )

 


किताब खुली तो

उस पर उबलती चाय गिर गई।

सुबह का ताजा सपना लिखा था, उस पर

कफ़न में लिपटा अपना वजूद देखा था।

जिसके चारों और घट पीठ पर लिए मैं

परिक्रमा कर रही थी।

अग्नि की लपटें 

मेरा जिस्म जला रही थी।

वजूद मिटा रही थी।

मुझे धरा में विलीन कर रही थी।

मैं परिक्रमा कर घट वही गिरा आई

पलट कर देखा नहीं, रुदन किया नहीं

पंचतत्व में विलीन होता अपना तन-मन देखती रही।

चिता की अग्नि थी, राख में बदल गई।

शोकाकुल नहीं हुई, बस अस्थि कलश में सिमट गई।

ईश्वरीय अंश थी, ईश्वर के घर चल पड़ी

अपनी जीवात्मा लिए।।


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